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अध्यात्म बारहखड़ी
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जनपति जय जय देव, दास पां8 जय तोते, जहैं मूढताभाव, रावरौं अनुग्रह हो । विनु अनुग्रह तप करें, तोहु पांवें नहि पारा,
मासमास उपवास, धरै जलविनु तप भारा। एक बूंद जल पारनौं करि, बहुत काल असे तपा। करहि तदपि तो विनु गुसांई, कर्मभर्म कबहु न खपा ।। ७ ।।
जव कहिये प्रभु तेज, वहुरि इह सीघ्र जु नांमा, सीम्र तारि करि पार, तू हि अति तेज सुनांमा। जव मात्र हि अब खाभ, पूंद एका मा पोय,
तौ पनि तो विनु पार जगत जलको नहि छीवै। शंकर जु जटाधर चरन रज, सेबें नाथ सुसवरी। जटाजूट अतिभाव, स्वामी हरौ भ्रांति अति बावरी ।। ८ ।।
- दोहा - जगत जेष्ट जग पाल तू, जगन्नाथ जग बंधु। जगत ज्योति, जग योनि तू, जगत गर्भ निरबंध।।९।। जगत हितैषी जग प्रभू, जगदग्रज जगमित्र । वलत चलन प्रभ जगत गुर, जगतभिषक अतिचित्र॥१०॥ जग सुंदर जग सय तू, जगत धात जग पीव । जगत तात जग छात त, जनपालक जगदीव ।। ११ ।।
- मंदाक्रांता छंद - जानैं सारी, तन मन तनी, जातरूप स्वरूपा, ___जातब्रतो अति गुण तु ही, जाग्रतो तू अनूपा। प्रीत्यप्रीती, कबहु न धेरै, जातजात्यादि वीता,
जाला काटै कलिमल हैर, जाल जंजाल जीता ।। १२॥ जाच्यो देवा, भवभय हरौ, तू हि है जान राया,
जाचें काकों, नुवतजि प्रभू, तू अवाची अकाया। जाया माया, कछुहु न धरै, जाय आवै न स्वामी,
जाकी जोगी, जगतजि रटें, सो तु ही है विरामी॥१३॥