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अध्यात्म बारहखड़ी
.- श्रीक - जगन्नाथं जनाधीश, जातरूपाभमीश्वरं । जिनं जीवाधिपं धीरे, जुटितं च न मायया॥१॥ जटाजूटात्मकं देवं, जेतारं जैन भासकं । रजोहरं महावीर, मिलितं न हि कर्मणा ॥२॥ ज्योति रूपं सदा शांतं, यन्त्रमाब्जौ सुराधिपैः। पूजितं तं नमस्यामि, जंभितं ज: प्रकाशकं ॥३॥
- छाप्यय - जगजीवन जगभांन, नाथ तू जगत प्रकासी, जगनायक जगदेव, शुद्ध तू तत्त्व विकासी। जगत सिरोमणि धीर, तू हि जगमान अमाना,
जगत उधारक ईस, तू हि जगदीस सुजांना । जग त्यागी जग भाल सांई, जगतजीत अघजीत तू। जडता रहित सुग्यांन रूपी, अजड अरूप अतीत तू॥ ४॥
जलजित निर्मलभाव, जलजजित तेरे पावा, जलजबासिनी नाथ, जलधि जित तेरे भावा। जलद नांहि अति ऊच, ऊच तू अमृतवर्षा,
जनक सकल को तू हि, जनक तारक अति हर्षा । जक न परै जो लग्ग दरसन, होय नहि प्रभु रावरौ । दरस देहु परसन्न होई, किये दोष सहु छावरौ ॥५॥
जड चेतन सब भास, तू हि चैतन्य सुरूपा, जस तेरौ नर नाग, देव गांवें जु अनूपा । जनम जरा अर मरन मेटि हमरे अविनासी,
जघनि मध्य उतकिष्ट, भेदभासक सुखरासी। तू न जधन्य न मध्य देवा, उतकिष्टा उतकिष्ट तू। जलथल उपन्न सव कष्ट हर, जठरागनि हर इष्ट तू ॥६॥