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अध्यात्य बारहखड़ी
- दोहा - जाति जरा मरणादि जे, जाग्रत सुपन सुषुप्ति । तेरै एक न जातुचित, तू अजात धर गुप्ति ।।१४।। जाकै काहु काल ही, आलजाल नहि कोय। नागर तू हि सुजागरू, परम उजागर सोय ।।१५।। जाडौ लोक अनंत ते, जामैं सर्व समाय । परमाणू ते पातरौ, मुनि हु नु देखें राय ॥१६॥ जार चोर जाहि न लहैं, लहैं सुशील सदीव । जाल रूप भव जाल तें, जा भजि निकसैं जीव ।। १७॥ जावा की जेती वसत, ते सव मद्य समांन । जाही मैं निंदी स₹, त्या- दास अखांन ।।१८।। जाप जपैं तेरे मुनी, जपैं देव नर नाग। जालिम तू मोहादि हर, भक्ति धेरै बड़भाग।१९।। जिननायक जिननाथ त, जिनपति तू जिनराय। जिन मारग भासी तु ही, तू जिनदेव अमाय ॥२०॥ जिती जितेंद्री जित गुरू, जित मनजित बुधि धीर। जित विमोह जित काम तू, जिताजीत अतिवीर ।। २१ ।। जित जित देखें नाशजी, जिहां जिहां तू ईश। जिम जिम तोकौं ध्याइए, तिम तिम शुद्धि अधीस॥ २२ ॥ जिय की भ्रांति सवै मिटैं, हिय की सल्य पलाय। जव तू आवै घट विषै, जितजीतक अधिकाय ।। २३ ।। तू जितजेय जितीसरो, है जिनिंद्र प्रभु जिशू । परम जिताक्ष जितीश तू, तु ही जितांतक विश्व ।। २४ ।। जिगजिगाट तेरी छवी, जितविभाव जग जीत । जिलाहिये जेता प्रभू, तू जेता अघजीत ।। २५ ।। जिक्कहिये जय नाम है, तू जयरूप अनूप। जितकर्मा अतिधर्म तू, जित मनमथ व्रत रूप॥२६ ।।