________________
१२३
अध्यात्म बारहखड़ी
- सवैया तेईसा २३ – जीव अजीव तने सवभेद कहै जगपीव, तु ही अतिभासा। जीव दया प्रतिपालक तूहि सुजीवनि को पति जीव प्रकासा। जीरण नाहि न जोवनवांन सुबाल न लाल अजीरण नासा। जीति स्वरूप अजीत अपार सुजीवनि की रछि पाल अनासा।। २७॥ जीभ अपार करे पति नाग ज वडभाग सुपार न पावै। जिनु अनेक जु नैंननि तें निरखै तुध रूप सुनिप्ति न आवै। जे अहमिंद्र अनुत्तरवासिसु नित्य निरंतर कीरति गांवें । काल असंखित तेहु न पार लहैं गणधार न तोहि जु भावें ॥२८॥ जीभ जु एक न शक्ति सुवाच्य महामतिहीन न आगम धारी। नाहि अध्यातम को कछु लेस न धर्म गृहस्थ न साधु अचारी। व्रत न जोग नहीं प्रभु ज्ञान सु कैसाहि गांवहि कीरति भारी। डेडर या भव कूप जु के हम तू गुनसिंधु अवंध अपारी ।। २९॥
दोहा - जीव जगत के हम प्रभू, गुन वरनन नहि होय। भक्ति भाव भासै गुणा, और न कारन कोय ।। ३० ।। जुदौ मोहमद द्रोह तँ, जुदौ जगत ते राव। माया काया से जुदौ, तोते जुदे विभाव ।। ३१॥ जुदौ नहीं गुन ग्यान तैं, न हि सत्ता से भिन्न । जुदौ नहीं आनंद लें, आतम देव अभिन्न ।। ३२ ।। जुगपत तेरौ ज्ञान है, व्यापि रहयो सव माहि। जु को दिवस तो विनु गमैं, धृक सो दिन सक नांहि ।। ३३ ।। जुरै न तो सौं कर्म ए, भिरै न तो सौं भर्म । परै परै फिरते फिरें, तू अतिबल अतिधर्म ॥३४ ।। जुरघो न तोसौं जीव इह, तातें रुल्यो अपार । जुरै चित्त करि तोहि सौं, ते पांवें भवपार ।। ३५ ।।