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जुटें न तोसौं जड सवै कदैं न मोतें पासि ए, काटि भर्म दें
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सवैया ३१
जूवो सब दोषनितें गुननि को नाथ महा जूवा मांस मदिरा को निंदक महाप्रभू । गनिका को निंदक औ निंदक अहेरा हू कौ
चोरी चारी जारी तजि संतनि गहा विभू । परदारा संगम निषेद्यो जांनैं पाप महा हु
विसन सेय कैं न काहू नैं लहा स्वभू । वह प्राणिनाथ प्राणि प्राणनि को रछिपाल, उपज्यो न काहू काल सूत्र मैं कहा अभू ॥ ३७ ॥
टूटैं तोहि सौं कर्म । धर्म ॥ ३६ ॥
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अध्यात्म बारहखड़ी
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सोरठा
जून तू अतिनाथ, काल अनंतानंत कौ। नित्य नवल गुन साथ, जूनौं तू नहि देखिये ।। ३८ ।।
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देकै जग सौं पूठि जेता जग कौ तू हि तू औसौ जु प्रभूहि, जेते जीव अजीव तू त्रिभुवन को पीव, अंतरजांमी सवनि कौ ॥ ४१ ॥
विषै भोग जग जूठि सो दासा चाहें नहीं । निह्कामा है गुन रटैं ॥ ३१ ॥ जेठा सब मैं तू सही । जे जन हीं तारै तुरत ॥ ४० ॥ तेते सव तुव ज्ञांन मैं ।
लहैं जेहली नांहि, तू जेहलता दूर कर । परे जेलि के मांहि, जीव तुही काठै प्रभू ॥ ४२ ॥
तो सव हैं जेर, जेरज अंडज उदभवा । तू मरजादा मेर, सब कौ रक्षक ईसरा ॥ ४३ ॥ जेठमास गिरसीस, तापतपै तौंपनि प्रभू । तुव भजिया विनु ईस, कटै कर्म की पासि नां ॥ ४४ ॥