________________
अध्यात्म बारहखड़ी
२५७
शास्वती संपदा तेरी, शातकुंभ समान तू। शातकुंभी सुवर्णो है, है सुवर्णो अमान तू॥१२॥ कर्म काई लगें नाही, ज्ञान रूपी विशाल तू। शाखा गोत्रा ना गात्रा है, शास्त्रज्ञी शास्त्र पार तू ।।१३।। शापानुग्रहसामर्था, तेरेदासा दयाल हैं, तेरेनाम सवैनसँ। शाकिनी भ्रांति भावा जो, दास पिंडे नही धसै॥ १४ ।। शाक पत्रा न पुष्पा जे, कंद मूला तथा फला। तेरे दासा तऊँ सर्वे, लेंहि अन्ना तथा जला।।१५।।
– चौपड़ी - शिव निर्वांन तनौं है नांम, तू निर्वान रूप अभिरांम। शिव कल्याण नाम हू होय, तो विनु और न शिव पथ कोइ ।। १६ ।। शिव तू ही शंकर है त हि, बुद्ध विशुद्ध प्रवुद्ध प्रभूहि। शिव कहिये रुद्रहु को नाम, महारुद्र ध्यावे तुव धाम ॥ १७ ॥ शिवपुर दायक नायक लोक, लोक शिखर राजै गुन थोक। शिक्ष न काह क्रौ तु हि गुरू, शिव मंदिर जगजीवन धुरू।।१८।। शिष्ट विशिष्ट महा वरवीर, शिष्टाचार प्रकाशक धीर। शिष्ट पुरष धारै तुव सेव, दुष्ट न पावै तेरो भेव ॥ १९॥ शिखा सूत्र रहिता निरग्रंथ, ध्यांव तोहि धारि तुव पंथ । शिखरी पति सम निश्चल ध्यान, धारहि तेरे दास सुज्ञान।।२०।। घन गर्जित सम तेरी वांनि, सुनि हरर्षे भवि अतिगुन खांनि। भव्यन से न शिखंडी और, तो सम मेघ न तु जगमौर॥२१ ।। शिखी अगनि भव तुल्य न शिखी, तू हि वुझावै अतिरस ऋषी। शिवा गवरी शक्ति जु होय, शक्ति अनंत धेरै तू सोय॥२२॥ शिला सिद्ध परसिद्ध प्रभाव, तहां तू हि राजै जिनराव। स्वगत सर्वगत तू सुखदाय, चरन कपल से मुनिराय॥२३॥