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अध्यात्म बारहखड़ी
– इंद्र बज्रा छंद - भाष्यो श वर्णो जु परोक्ष नामा, तू ही परोक्षो परतक्ष रामा। शक्ति स्वरूपो अतिशक्त तू ही, शस्त प्रशस्तो अति है प्रभूही ॥१॥ शर्मा जु वर्मा जग को शशी है, शक्नु स्वरूपो अति ही वशी है। सुखो हि शर्मो सुख रूप तू ही, शक्राभजै तो हि तु ही प्रभू ही॥२॥ तू ही शरण्यो शरण प्रदाई, तू ही शमी है शमभाव दाई। हितू न तो सौ जग मांहि कोई, शत्रुघ्न तू ही परसिद्ध होई॥३॥ शत्रू हि रागादिक और नाही, शत्रुजयो तू हि सुलोक माहि। नहीं जु शस्त्रा न हि अस्त्र वस्त्रा, वीराधिवीरो तु हि ज्ञानशस्त्रा ॥४॥ शब्दा न रूपा नहि गंध फासा, तेरै रसा कोई न तू विभासा । रसी महा तूहि प्रभू रसीला, पांवॆ न तोकौं सठ जे कुसीला ।। ५॥
- दोहा - शमित सकल दुख दोष तू, शमी दमी ध्याहि । शव जु मृतग तेई प्रभू, जे तुहि नहि गांवहि॥६॥ तेरी वांनी शर्करा, और शर्करा नाहि। महा मिष्ट भवताप हर, रस अनंत जा मांहि ॥७॥ गुन शमुद्र गंभीर तू, अति नय नायक नाथ । शल्य रहित अविभाव तू, शक्ति अनंता शाथ ।। ८॥ शनैः शनैः भवपार हूँ, ले पपीलिका पंथ। तुरत विहंगम पंथ हैं, उधरै मुनि निरग्रंथ ।। ९ ।।
- अनुष्टुप छंद - शांत रूपी विशुद्धात्मा, शास्ताशासन नायक। शांतिकारी सदा शुद्धो, शांति नाथो सुजायक ।। १० ।। शांतो दांतो प्रकाशात्मा, शास्वतो शाम्य भावक। शा सोभा कहिये स्वामी, तू हि सोभा प्रभावक॥११॥