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अध्यात्म बारहखड़ी
अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं ।
वरदाय ऋद्धिदाय, वासना रहित राय, विश्वभर वीतराग, वीतमोह है तु ही । व्युतपन्न व्युतपत्ति रूप तू अनंत महा व्यूढ,
अतिगूढ नाथ वेद मूल है सही। वैवस्वत हारी देव, व्योम तुल्य है अछेव,
व्यौहार सुनिश्चय कौ भासक रहै वही । गुनवंत ज्ञानवंत, वंस अतितारक तू,
प्रकास है विभास रागादिक है नहीं । ।। ६९ ।।
कुंडलिया छंद तेरी नाथ सुपरणती, वीतरागता जोहु,
सोई विगत विकारता ज्ञान चेतना सोहु । ज्ञान चेतना सोहु ताहि कहिये निज कमला,
अति हि विज्ञता भूति, वस्तुता क्रांति जुविमला । वह तेरी अनुभूति संपदा शक्ति धणेरी,
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भाषै दौलति ताहि, परणती नाथ जु तेरी ॥ ७० ॥
इति वकार संपूर्ण आगें तालबी शवर्ण का वर्णन करें है।
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भोक
शक्ति मूलं च शक्तीशं, धर्मशास्त्र प्रकासकं ।
शिवंभवं सदाशीलं शुद्धं शुक्लं प्रभाधरं ॥ १ ॥
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शूरं वीराधिपं वीरं, शैलराज निभं धीरं
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शेमुषी शै शोक संताप
प्रपूजितं ।
हारकं ॥ २ ॥
शौत्राचार प्रणेतारं प्राणिरक्षा
प्ररूपकं ।
शंकरं शंभवं वंदे, शः प्रकाशं विभास्वरं ॥ ३ ॥
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