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अध्यात्म बारहखड़ी
- सवैया २३ --- घोर तिहारिहि इंद निहारहि, नागपती फुनि तेरिहि बोरा,
चक्रि हली मुनिराय निहारहि, तेरिहि वोर तजे भव घोरा । वोप चढे अति तोहि जु सेयहि, तू अतिज्ञान अनंत सजोरा, वोस जु विंदु समान विषै सुख, तोहि बिसारि गहै सुइ भोरा ।। ५८॥ .
.. – योहा ... . . वस्त्र व्यौंत को सोहई, जैसे जन को जोर। तैसें जग की साहबी, तोहि फवै अति जोर ।। ५९ ॥ व्यौहारी निश्चनय, पावै तोहि जु सेय। तू निश्चै व्यौहार मय, नय भाषै अति भेव ॥६०॥ वंस अनेक उधारिया, तरै वंस न कोय । वंसनि मैं मोती यथा, त्यौं तू जग मैं होय ॥६॥ वंधक तोहि न पांवहीं, बंधकता अति निदि । तू हि अवंचक देव है, विगि रहित अतिवंदि ।।६२ ।। विगि अर्थ अर शब्द सहु, तू हि विभासै देव। ए तोकौं लहि नहि सकें, तू अनंत अतिभव ।। ६३ ।। वर्ण पंच रस पंच अर गंध दोय वसु फास। ए विसति तैर नहीं, तू चेतन अतिभास ।। ६४।। वितादिको अशुद्ध फल, श्रुति वर्जित तजि देहि । तेरे दास प्रबीन अति, शुद्ध अन्न जल लेंहि ॥६५॥ वः युष्माकं रावर, राग न दोष न मोह । वः कहिये फुनि नैत्र कौं, तू जग नेत्र अमोह ।। ६६ ।। वः कहिये फुनि गमन कौं, विना गमन सहु गम्य। तोकौं घट घट की सदा, तू अगम्य अतिरम्य ॥६७।। वः श्रेष्ठ जु को नांव है, तू अति श्रेष्ठ अपार। व: विकार हू को कहैं, तू स्वामी अविकार॥६८॥