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. . . अध्यात्म तारनपदी
ब्रीडा आदि गुना जे, धारै दासा सुने हि तुव देसा। पांवहि ज्ञान धना जे, ब्रोडा तोकौं हि दासनि की॥ ४५ ।। व्युतपन्ना जे साधु, व्युतपत्ती ज्ञान ध्यान की जिनकै। तेरी करहि अराधू, व्यूढा प्रौढा मुनी शुद्धा॥ ४६ ।। व्यूहादिक अति भेदा, युद्ध विर्षे होइ सूरवीरनिकै। युद्ध विना विनु खेदा, जीतें तेरे जना मोहैं ॥ ४७ ।। वेद विधाता तू ही, वेद तिहारी हि वांनी सिद्धांता। वेत्ता सर्व समूही, निरवेदा तू हि अतिवेदा ।। ४८ ।। स्वरस स्व संवेदन जो, तू हि प्रकासै जु तत्व विज्ञाना। वेधा भव भेदन जो, तू ही वेगें जु भव तारै ॥४९ ।। वेपथु कहिये कंपा, तू हि अकंपा अनश्वरा स्वामी। निरमल तू हि अलिंपा, वेस्यादिक विसन निर्दै तू॥५०॥ वेषहु धारि विमूढा, तोकौं ध्यां न नागिया धंधै। ने पद लहैं न गूढा, रूढा भवसागर वूडै ।। ५१ ॥ वैवस्वत हैं कालो, कालहरा तू हि कर्महारी है। वैद्यो तू हि विसाला, वैश्वानर रोग इंधन कौं।। ५२ ।। वैनतेय सौ तू ही, काम भुयंगो नसै जु तुव नामैं। धारै भाव समूही, रति कौं वैधव्य दे तू ही ।। ५३ ॥ वै इति निश्चै नामा, निश्चै तू ही कहै जु व्यवहारा। द्वयनय भासक रामा, वैराग्यालंकृता तू ही॥५४ ।। वैदेही दुखहारा, वैस्य उधारा सुविप्र तारा तू। क्षत्रि उधारा भारा, भव्य उधारा जु तु ही है ।। ५५ ।। तु ही विदेहो स्वामी, वैदेही रीति भासई सकला। व्योम समान विरामी, व्योम जडो तू हि चिद्रूपा ॥५६॥ वोट न तेरै कोई, तू हि निरावर्ण है जु निरलेपा। केवल चिनमय होई, वोट हरै तू हि दे दरसा ॥ ५७ ।।