________________
अध्यात्म बारहखड़ी
बैवस्वत हर विश्वधर, कर्म रोग हर देव । बैदक रीति प्रकास तू, वैद तु ही जु अछेव ।। ५९।। बै निश्चय कौ नाम है, निश्चै रूप जु तू हि। बोध निधान सुजान तू, बोध प्रमांन प्रभू हि।। ६० ।। बोहथ भव की तू सही, प्रतिबोधक भवि जीव । तारे तू हि जु और नां, सुखदायक जग पीव।। ६१॥
. छंद मालिनी - तुझ हि नहि पिछांनै, शून्यबादी जु बौधा,
लहहिम विपरीता, नूर पाखंड सौधा। . .... करहि पर विघाता, ते न तोकौं जु पांवें,
सकल जन दयाला भक्त तोकौं हि गांवै।। ६२ ।। तव निकट जु ऋद्धि, सिद्धि को सिंधु तू ही,
__ रहित सकल बंधो, मोक्ष मूलो प्रभू ही। चिदघन चिनमात्रो, शुद्ध भावो अनादी,
अचलित परभावो, लोक बंधू जु आदी ।। ६३॥
– सादल विक्रोडित छंद - वंधा बंधन तू हि काटि शिव दे, तू नासई बंकता। पावै नाहि जु पंचका प्रभु तुझै, तैरै नहीं सकता। माता दासनि की हि पुत्रवति है, और जु बंध्या समा। तू ही नाथ अनाथ पार करणो, धारै अनंती रमा ।।६४।।
- दोहा -- विंध्याचल पुर सम गर्ने, गि गुहा घर तुल्य!
है उदास भव वास ते, दास जड़ें जु अतुल्य ।। ६५॥ विंताकादिक बिंजना, तेरे दास भवन। और हु वस्तु अभक्ष जे, तिनकौं कबहु चखैन ।। ६६ ।।