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अध्यात्म बारहखड़ी
गुन समग्न अति उग्र, तू स्थवीयान अलेसा,
सदाचार परवीन, तू हरै सर्व कलेसा ।। १५ ॥ समय प्रकासक सार तू, स्वसंवेद्य रस लीन,
कृतकृत्यो सतकृत्य तृ, तोमैं भाव न दीन । तोमैं भाव न दीन, तू हि है दीन दयाला,
सतवन तेरौ देव, करहि सुरनर मुनि पाला। स्व समय रूप अनूप, नाथ तृ सर्व विभासक,
तू स्वतंत्र जगदीस, सार तू समय प्रकासक॥१६॥ समभावा तोहि जु भ6, ते निज समय लभंत,
स्वयं सिद्ध सब पूजि तू, सरल स्वभाव अनंत। सरल स्वभाव अनंत, तू हि है ब्रह्म सनातन,
सर्व विभाव वितीत, मीत तू सर्व सदाधन। सकल प्रपंच निवार, तोहि ध्यांचैं मुनिरावा, सकल जीव रक्षिपाल, भ6 तोहि जु समभावा ।। १७॥
.. छंद - सप्त नरक नहि पां दासा, सुर्गादिक हु न चांहैं। सतरा संजम धारि अनासा, तुव पुर कौं हि उमाहै ।। १८ ॥ सातवीस विषया तजि मुनिवर, हाँहि उदासी भव तैं। ते तेरौं अध्यातम लहि करि, निकसैं या भव दव तैं।।१९।। सप्त तीस सहमर गनि लीजे, बहुरि पंच सै गनियें। एते भेद प्रमाद सबै ही, तो भजियां सव हनियें॥ २० ॥ विकथा पचवीसा अर एचवीसा हि कषाया गुनियें। पच्ची पची गुनियां एई, छस् एच्ची भनियें ।। २५।। फिर एई इंद्री अर मन सौं, गुन्या थकी भव मृला। साढा सैंतीसाहि सैकरा, हौं हि महा अघ थूला ।। २२ ।।