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अध्यात्म बारहखड़ी
सन जन तोहि विसारि रूलैं भात्र जार मै,
तव मत प्रोहण विगरि स डू0 धार मैं। सत्य स्वरूप निरूप अनूप अधीस तू,
सफल होय नर देह तो भज्यां ईस तू ॥११॥ सत्ता रूप अरूप शुद्ध चैतन्य तू,
भव सागर तैं पार करै प्रभु धन्य तू। सपरस रस अर गंध वर्ण शब्दा नहीं, ज्ञानानंद स्वरूप तू हि निज गुन महीं॥ १२ ॥
- कुंडलिया छंद - सदा सनातन ईस तू, सदा त्रिप्त जोगीस,
सदा जोग जगदीस तू, सदा भोग भोगीस। सदा भोग भोगीस, धौंस तू धीर सदागति, .
सदानंद सद्रूप, सकल समयज्ञ प्रजापति । सर्व व्यापको तू हि, स्वस्थ अति स्वच्छ सदा धन,
सदा स्वभावी भाव, ईस तू सदा सनातन ॥१३ ।। सदा समाहित नाथ तू, परम समाधि स्वरूप,
सरवाधिक्य सहाय तू, सर्वेश्वर जगभूप। सर्वेश्वर जगभूप, वीर तू सर्व समूही,
स्पष्टाक्षर प्रतिभास, है स्वयंवृद्ध प्रभू ही। सत्य स्वयंभू देव, सेव दें धीर अवाधित,
स्वभृ अभू सवरूप, नाथ तू सदा समाहित ।। १४॥ सर्व कलेसा तू हरै, सर्वदोष हर ईस,
सर्व वित्त सर्वोत्तमा, सर्वजीव अवनीस। सर्वजीव अवनीस, सर्वदरसी सवभावा,
सत्य परायण नाथ, सत्य सरधान प्रभावा।