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अध्यात्म बारहखड़ी
स्रष्टा धर्म स्वरूप स्त्रिष्टि कौ तू हि है, सर्वलोक कौ ईस अधीस प्रभूहि हैं ॥ ४ ॥
सरवारथ सिद्धि दाय सकल लोकातिगो, सरव लोक को सारथी हि करमातिगो । सदानंद सद्रूप समरसी भाव तू समरस धर मुन्निराय जपै जगराव तू ॥ ५ ॥ सरवग सरवज्ञो हि तू हि सरवत्र है,
सर्वरूप सर्वालयो हि जग छत्र है । सकल देख सब सम्यकी हि तोकौं भजें,
मुनि समंत जु भद्र तोहि लखि भव तजैं ॥ ६ ॥ प्रभू सहस्त्र सुमूर्ति सद्य भवतार तू,
तूहि सहश्र जु शीर्ष सर्वदा सार तू । तू हि सहश्र जु पात तात सब लोक कौ,
सहश्राक्ष जगदीस ईस गुन थोक कौ ॥ ७ ॥ रटै सहश्र फणाधिपोहि तोकौं प्रभू,
सहस किरण ध्यावैहि कीर्ति गावै विभू । सहश्राक्ष जो इंद रूप तुव निरषतों,
मगन होय करि नृत्य करै अति हरषतों ॥ ८ ॥ समता धर मुनिराय धीर तोकौं सदा,
अहनिसिध्यांवें तोहि नाहि त्रिसरें कढ़ा । सक नांही जिनकों कदापि कोऊ तनी,
सखा जिनों के तोहि सारिखी जगधनी ॥ ९ ॥ सलिल समाना तेहि दाह भव कौं हरे, निर्मल रूप मुनीश ध्यान तेरों करें। सलिल निधी इह जगत याहि तिरि साधवा, आंवै तेरे लोक यतीश
अबाधवा ॥ १० ॥