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अध्यात्म बारहखड़ी
२७१ ए फुनि पंच नींद सौं गुनियां, सहसर पौन गुनीसा । द्विविधि मोह सौं गुनिया एई, सहसर साढ संतीसा ॥ २३ ॥ सप्त अधिक चालीसा प्रकती, घाति कर्म की कहिये। तुव मारग तैं धाति कर्म हरि, केवल बोध जु लहिये॥२४॥ सत्तावन आश्रव तू टार, सतसठि सम्यक भाषै। सम्यक दरसन जान चरन मय, तो करि निज रस चाषै। २५ ।। सत्तरि कोडाकोडि पयोधी थिति है दरसन मोहा। तेरे दास हनैं प्रभु मोहा, जिनकै राग न द्रोहा ।। २६ ।। सतहत्तरि को बंध बतावै, चौथे ठांणि जु स्वामी। सत्यासी तेरौ ही नामा, सत्य स्वरूप सुनामी॥२७॥ सत्याणव सहसर चौरासी, लक्षा तेरे देवल । सुर्ग लोक मैं नादि अकर्तम, इह भा0 श्रति केवल ॥२८॥ चौथी पंचम छट्ठी ग्रीवां, सप्ताधिक सौ देवल। तेरे अहमिंद्रनिकरि पूजि, इह भासै धर कंवल ।। २९ ॥ सप्त दसाधिक अर सौ प्रकृती, बंधै पहलै ठाणे । पहलौ ठाण उलंधि लहै बुद्धि, तब तुव भक्ति जु जाणे ।। ३०॥ सहसर नाम तिहारे जपिकरि, भवि पांनिज वस्तू। अमित अनंत नाम हैं तेरे, तू प्रभू परम प्रशस्तू ।। ३१ ।।
- छंद वेसरी .. साषा (सखा) जीव मात्रनिको तू ही, सरव भूत को हितू प्रभृही। सरसुति तेरी वांनी कैयै, सरसुति करि आतम गुन लैये ॥ ३२ ॥ सपदि सद्य ए शीघ्र जु नामां, तुरत देय तू केवल धामा। सकट कर्म सबै ले माजा, जव तोकौं ध्याबैं मुनि राजा॥३३॥ सठ मोसौ दुजो नहि औरा, तोहि विसारि कियो निज चौरा। सन्यौं विषं सौं मैं अतिमूढा, तोहि न ध्यायो है आरूढा॥३४॥