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अध्यात्म बारहखड़ी
हाँत्रिकं पाप हतार, हंस वगै निषेवितं । ह्रः मंत्राक्षर रूपं च, वंदे देवं सदोदयं ॥४॥
दोहा - हर्ष रूप आनंद घन, हर्ष विषाद वितीत। हर हरि जिनवर देव तृ, हरि हर पूजि अजीत ॥ ५ ॥
__ . छप्पय - हर स्वामी हर नाथ, तोहि हल धर अति सेवें,
हृदय कमल मैं तोहि, साधु धरि शिव सुख ले। हत विरोध तू देव, तू हि हतराग विमोहा,
हृषीकेश जगतेस, नांहि तेरै परद्रोहा। हरित न पीत न सेत रक्त, स्याम न तू घनस्याम है,
हरित काय न हि भक्ष भाषे, तू हृदयस्थ सु राम है॥६॥ हवि सुरूप सहु कर्म, तू हि होता जु अनादी,
__ ध्यानानल परगास, देव तू सव महि आदी। हद वेदह तू देव, हद्द वांधै सहु तू ही,
रहै हद्द के अंत, ज्ञान घन तूहि समूही। नहि हसइ न तूसइ रूसई, नित्य प्रसन्न अनंत तू,
हम कौँ हु देहु निज भक्ति प्रभु, हृष्ट तुष्ट भगवंत तू॥७॥ हठ योगी हठ योग, तू हि हठकरि अघ खंडे,
हणे कर्म सब भर्म, काम क्रोधादि विहंडे। हच्छपकरि वडहच्छ, तारि तू हमहि गुसांई,
हति पातिग हरि देव, लोभ मोहादि अमाई। हटकि चित्त जे तोहि ध्यावे, अटकि हैं नहि जगत मैं,
हदै राग मोहादि तिनतें, ते गनियें तुव भगति मैं।। ८ ।। हड़ षोड़े को नाम, एहि हड सम भवकूपा,
___ यात कादि दयाल, देहु निरवांन अनूपा।