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________________ अध्यात्म बारहखड़ी २८७ हस्ति न घोटक भृत्य, नांहि स्यंदन शिवकादी, चाहें केवल भक्ति, रावरी सव महि आदी। तू चैतन्य अमूरतातम, ज्ञान स्वरूप अनूप है, लोकेस लोक परमाण तू, पुरषाकार स्वरूप है।।९।। हस्त मांहि सहु वस्तु, अस्त विनु उदय स्वरूपा, हसत वदन जगनाथ, श्रीर तू वीर अरूपा। हसिवौ खिजिवी नाहि, तू हि विनु राग द्वेषा, अलख अमूरति देव, सेव दै शुद्ध अल्लेघा। करि स्व हजूरी मोहि नाथा, दे समीपता आपंनी, हरि भ्रांति देहु सम्यक्त तू, टारि मूरछा पापंनी ।।१०॥ हारद तू हि दयाल, और नहि हारद कोऊ, ......... तेरी हाक... सरनोविक पोटू मिरजक सम होऊ। हानि न वृद्धि न कोय, तू हि है नित्य अखंडित, हानि वृद्धि परकास, तू सदा अतिगुन मंडित । हास्यादिक ते रहित देवा, निरमोही निरवांन तू, हाव न भाव विलास विभ्रम, योग युगति परवान तू। ११ ।। हांती पारचौ नाथ, कर्म नैं मेरौ तोते, छां. नाही संग नादि तैं ए जड़ मोते। हाथ पकरि अव देव, बैंचि लैं अप पुर मैं, हार समान जु होय, तू हि वसि हरि मुझ उर मैं। हाटक त अति विमल तू ही, है विराट को नाथ तू, हारद योगीश्वरनि की है, रहे निरंतर साथ तृ॥१२ ।। हार न मुकट न कटक, नांहि को अंगद तेरे, तू निरग्रंथ दयाल, मोह माया नहि नरे। तृ ही हिरण्य सुनाभि, नाभि को पुत्र कहावै, प्रभू हिरण्य सु गर्भ, अर्भ को तृ न लखावै ।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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