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अध्यात्म बारहखड़ी अर्भक वालक नाम कहिये, तू वालक नाह कोय की,
अजर अजोनी शंभु स्वामी, तू हि तात सब लोय कौ ॥ १३ ॥ तु ही हिरण्य सुवर्ण, तो समो नांहि सुवर्णा,
हितमित वैन दयाल, तू हि है हितु अवर्णा । हिमकर पति जग जोति, तू हि हिमगिरि सौ देवा,
हिमता हर हर देव, देहु चरननिकी सेवा । बसहु हिये मैं ज्ञान रूपा, हिरदै की चक्षु खोलि तू,
हि कहिये निश्चै स्वरूपा, हरि हरि हमरी भोलि नृ॥ १४॥ हिवड़े तिष्टि सुदेव, तारि लै जगत प्रपाला,
___ हिम ऋतु सम जड भाव, टारि मोते सुकृपाला। ह्रींकार मय रूप, तू हि है ऊँकारा,
तू श्री वीज स्वरूप, सर्व वीजाक्षर पारा। हीदायक तू ही प्रपूजित, श्री ही धृति कीरति सवै,
वुद्धि जु कमला तोहि सेवें, राग दोष तोतें दर्दै ।।१५॥ हीरा मांनिका लाल, अवर पुखराज जु पन्नां,
मूंगा मोती बहुरि फुनि सुलीलम गनि लिन्नां। रतन लसनियां होय, नव जु ए रतन सुप्रगटा,
तीन रतन विनु सर्व, रतन दीसैं अति विघटा। सम्यग दरसन ज्ञान चरना, स्तनत्रय एई सही,
परमराग पुखराग प्रमुखा संध्याराग जु समल ही॥१६॥ हीसैं अति सुनुरंग, वार वारन बहुगजहि,
सेवहि अति सुनरिंद, द्वार वादित्र सुवजहि । सज्जहि अति भट शूर, जिनह कौं सेवहि सव जन,
से चक्रीनाथ, तोहि सौं लावै निजमन । तुव कारणि सव जगत तजि कैं, भजहि नरोतम दास हूँ.
तव पावें तुब पंथ देव, राग दोष द्वय नास हूँ॥१७ ।।