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अध्यात्म बारहखड़ी
अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं।
समरस पूरित तू, सागर गुननि को हि,
सिद्धि ऋद्धि वृद्धि को सुआगर अनंत है। सीमंधर सीमंकर सुष्टता प्रकाशक तृ,
सुनासीर ध्यांचैं जाहि देव भगवंत है। सूत्र की विभासक जो, सेत भव सिंधु की हि,
सैली को महंत महा, सोमद्रिष्टि संत है। साँध नांहि देह नांहि व्यापि रह्यो लोक मांहि,
संतनि को नायक जो सः प्रकास तंत है॥१४८।।
- छंद कुंडलिया – तेरी नाथ सुसंपदा, महासुसंपति जोय,
संकट हरनी सिद्धि जो, लक्ष्मी कहिये सोय। लक्ष्मी कहिये सोय, होय जो अतुल अनंता,
___ अनुभूती मुधिभूती, स्वच्छता तेरी संता। साकृति नाकृति रूप, तो समा क्रांति घणेरी,
भाषै दौलति ताहि, संपदा नाथ सु तेरी ।। १४९ ॥ इति सकार संपूर्ण । आगै हकार का व्याख्यान करै है।
- श्रोक -- हरि हर महावीरं, हार निहार सन्निभं । हितं हिरण्य गर्भ च, हीन दीनादि पालकं ॥१॥ हुताष्टकर्म संघातं, दीप्तं हुतभुजोपमं । पुरहूत पतिं देवं, हूं मंत्राक्षर भासकं ।।२॥ हेम. रूपं महाशुद्धं, हैमाद्या भरणातिगं। कर्म होमकर धीरे, देवं ध्यानाग्नि दीपकं ॥३॥