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________________ हो उठती है। प्रभु तो आलम्बन हैं, जगत के सभी पदार्थ आलम्बन हैं और उनके आलम्बनपूर्वक बनने वाले हमारं भावों/परिणामों से हमारी सुगति अथवा दुर्गति की रचना हो जाती है। कवि स्पष्ट जानते हैं कि आदेय स्वरूप एक केवल आत्मा है, अन्य कुछ नहीं - आतम विनु सब हेय, एक आदेय स्वरूपा । (२८९/२१) ग्रन्थ के आरंभ में परमात्मा को विविध नामों से अर्थ सहित स्तुति की गई है। आगे ओंकार के सम्बन्ध में कवि ने पद रचना की है और कहा है कि बिना प्रणव के कोई मन्त्र रचना नहीं होती, वह कार्यकारी नहीं होता। आगे श्री को लेकर कुछ पद रचना करने के बाद'अ' से लेकर 'ह'तक की बारहखड्डी से बनने वाले कतिपय - भदों से कवि ने सुद्ध आत्मा परमात्मा जिनेन्द्र की भक्ति की है। ये ही हरि हैं, हर हैं, बुद्ध हैं, सुगत हैं, रुद्र हैं, शिव हैं (परिशिष्ट में कतिपय अन्य नाम भी संकलित किये गये हैं) तथा राधा, भवानी, चण्डी आदि इनकी अपने से अभिन्ना स्वभावभूत शक्तियाँ हैं। अन्य जो शिव, हरि, माधव आदि हैं वे इन्हीं का ध्यान करते हैं (१०/११४) । वास्तव में जितने भी आस्तिक, आध्यात्मिक पुरुष हैं वे अपने ही चेतन- स्त्र के सत्-चित्-आनन्द लोक में मग्न होते हैं और कौन आज तक अपने चेतन - स्व को छोड़कर अन्य में प्रवेश कर पाया, अन्य को ग्रहण कर पाया। यह ही चेतन-स्व अपने शुद्ध परमात्मस्वरूप में, जिनेन्द्रस्वरूप में कवि को इष्ट है। मुनिजन गृह-परिवार त्याग कर रूखा-सूखा आहार देह को देकर एकान्त वन में इसी शुद्ध आत्मा परमात्मा की भक्ति करते हैं, ध्यान करते हैं । आत्मरसिक रुचि वाले गृहस्थ के लिये कवि कहते हैं कि वह घर में राहगीर, पाहुने की भाँति अलिप्त भाव से रहता हैं और परमात्मा की भक्ति का रसपान करता है। जो साधु होकर बाह्य धन्धे में पड़ जाते हैं उनके लिए कवि कहते हैं कि वे गृढ़ तत्त्व को प्राप्त नहीं कर पाते । मुँह से जाप करना भी छोड़ अजपा जाप करने को प्रभुदर्शनः आत्मदर्शन का कवि प्रबल साधन मानते हैं (२९१६३१) । कवि बुरी- धनी दोनों कणियों ( कायों) को पाप-पुण्य की रचना करने वाली होने से आत्मोपलब्धि में बाधक मानते है (२०९/४९, १७२६५) । आत्मोपलब्धि इनसे परे है। (viil
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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