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अध्यात्म बारहखड़ी आपकी एक श्रेष्ठ प्रौढ़ रचना है। इसके पारायण से कवि की भाषा-विशेषज्ञता के साथ भाषा के सम्बन्ध में ठनका तात्त्विक बोध भी उजागर होता हैं । चे भाषा को मात्र अर्थ संप्रेषण का साधन ही नहीं मानते, वरन् वे पुन:-पुनः शब्द-शब्द में प्रभु स्वरूप देखते हैं और कहते हैं 'सर्वाक्षर मूरति तू क्यो अक्कार में न होय' (१३१४८) ।
अध्यात्म बारहखड़ी रचना को कवि भक्त्याक्षर मालिका' कहते हैं। इसमें शुद्ध आत्मा परमात्मा जिनेन्द्र की भक्ति में पद रचना की गई है। यह उनकी चेतन देव और सुचेतना देवी की भक्ति में की गई रचना है। वे कहते हैं -
नाम अनंत सुदेव के, देवी नाम अनंत ।
आपुन माह पाइए भगवति अर भगवंत। ..:::.:.....सत्व अपर प्राचादि, साल जेब मैं गया। '
देवी ह सब मैं लसैं विरला झै भेव ।। (२९८/४०-४१) अपने कर्मबद्ध संसारी रूप के प्रति कवि को बड़ा क्षोभ है। कर्मों ने उनके शुद्ध स्वरूप से अंतर कर दिया है और इस अंतर को मिटाने हेतु वे जिनेन्द्र से प्रार्थना करते हैं -
हाती पारयौ नाथ, कर्म नैं मेरौ तो।
हाथ पकरि अब देव, बैंचि लैं अपनैं पुर मैं।। (२८७/१२) कवि अच्छी तरह जानते हैं कि जिनेन्द्र स्वयं से अभिन्न हैं और उनसे तथा अन्य सभी ज्ञेयों से भिन्न हैं।
तू हि अभिन्न व्यापको स्वामी, निजगुन पर्यय माहि।
भिन्न व्यापको सकल ज्ञेय मैं, राग दोष मैं नांहि ।। (२९७२७) प्रभु रागो द्वेषो नहीं हैं कि भिन्न पदार्थों के प्रति उपकार में प्रवृत्त हों। ऐसे वीतरागी प्रभु जिनमें अन्य के उपकार करने की इच्छा भी उत्पन्न नहीं होती कैसे भक्त को हाथ पकड़ कर अपने 'पुर' में खींच लेंगे? पर कवि जानते हैं कि भक्त को अपने भावों का, परिणामों का फल मिल जाता है, उसके पाप कर्म गल जाते हैं, आवरण कर रहे कर्मों का क्षयोपशम हो जाता है और भक्त की आत्मा दीप्तिमान
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