________________
अध्यात्म बारहखड़ी
विलित कानपभाल विाद सिद्ध जगदेव । निरविकार निरलेप तू, दै स्वामी निज सेव ॥३३॥ तू बिहाय सम निरमलो, तिष्ट सर्व विहाय। तैरै योहि बिहावई, स्वरस छक्यो अधिकाय ॥३४॥ तू बितर्क नै बेग लौ, युक्ति जु सर्व प्रकास। तोहि बिसारि जु हौं भम्यौं, अन्न दै भक्ति बिलास॥ ३५॥ तू हि बिदारै सर्व अघ, तू हि विडार भर्म । तू बिस्तार सुरूप है, निस्तारक निज धर्म ॥ ३६ ।। तू बिचार जोगीनिकों, निज बिहार विसफार। सकल विभाव वित्तीत तू, हरइ विभीति अपार ॥३७॥ बिनजारौं निरबांन को, मोटौं सारथबाह । बिनज निजातम अस्तु को, तर अतुल अथाह ॥३८ ।। मेरी बिकरे तव परै, तू पकर जब हाथ। बीवा तेरै पासि है, तू हि बतावै नाथ ॥ ३९ ॥ बीहैं नाहि कदापि हू, तेरे दास अभीत। तू बीचार वितीत है, बीजभूत जगजीत ॥ ४० ॥ तोहि वीसरयां भव भमैं, तुव भजियां भव मुक्ति। भुक्ति मुक्ति की मात जो, दै देवा निज भक्ति ।। ४१ ।। जिह्वा भूषन भजन है, बीस भूषन नांहि। बीरा नाम लॅबोल कौं, लौकिक भाषा मांहि।। ४२ ।। बीरा सील ब्रनीनि कौं, उचित न होय कदापि। भोग मूल हैं पुष्यदल, तू वरजै श्रुति थापि॥ ४३ ॥ बीर धीर बरवीर तू, वीजाक्षर परकास। योगी योग विलास तंध्यानारूढ विभास ।। ४४ ।। काया माया बीजली, सम क्षणभंगुर होय। तोहि भज्यां अविनश्वरा, लहिये लक्षमी सोय ॥ ४५ ।।