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अध्यात्म बारहखड़ी
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ये रागादि विनिर्मुक्ता, स्ते हि ध्यायति तं परं। यै ति मुनिभिः शांत, स्तैप्तिं परमं पदं।।३।। योग मार्ग प्रदातारं, यौगिकी ऋद्धि दायक। यं भनि सदा सर्वे, तं वंदे परमेश्वर ।। ४ ।। यः प्रभुः सर्व लोकना, मीश्वरः जगदीश्वरः । सुरासुसनशः सर्वे, बस्याज्ञाकारिण: सदा॥५॥
- दोहा - यदा कहा जा समैं, तोहि भनँ मुनिराय । तदा कहावै ता समै, भ्रांति न एक रहाय॥१॥ यत्कहिये जातै प्रभू, भऊँ तोहि जगत्यागि। जग असार तू सार है, तोमैं रहिये पागि।। २ ॥ तत्कहिये तातै प्रभू, देहु, भक्ति निहकाम। सर्व त्यागि तोकौं भजें, जैसी बुद्धि दै राम ॥ ३॥ यस्य कहावै जाहि के, उर निवसै तू देव । तस्य कहावै ताहि के, है आनंद अछेव ॥४॥ यस्मिन्कहिये जा विषै, तेरी भक्ति जु नाहि। तस्मिन्कहिये ता विर्षे, गुण गण नांहि रहांहि ।।५॥
- कुंडलिग छंद - यति नाथो अतिदेव तू, यति पति यति गण ध्येय,
यति नायक सुयतीश्वरो, यति पालक यति सेय। यति पालक यति सेय, सेवही जाहि यतिंद्रा,
यत्ति गुरगुरू दयाल, देव यतिभेस मुनिंद्रा। यतिराजो यतिनाव, धारही यतिवर साथो,
यति वर्गनि को तात, देव तू यति अतिनाथो ॥६॥