________________
अध्यात्म बारहखड़ी
कंठाभरण जु तेरी बांनी, कंठी मोतिन की न वखांनी। कंडू सम इह मदन विकारा, मेरौ मेटि जु जगत उधारा।। ९९ ।। कुंथ्वादिक कीटादिक प्रांनी, सय को दयापाल तू ज्ञानी । कूची मोक्षतनी तुव हाथा, माकों भक्ति दहु जिननाथा॥१०॥
__ .- दोहा -
कं कहिये आगम विषै, नाम सीस को स्वामि। सीस नाय वंदै तुमैं, सुर नर मुनिवर नांमि ॥१०१॥ कं कहिये सिद्धांत मैं, नांव जु सुख को ईस। तुम सुखदायक सिद्धिकर, शुद्ध महा जगदीस। १०२ ।। कं लिखियो पुस्तक विर्ष, नांव तोय को नाथ। तुम सीतल निरमल प्रभू, तपति हरण जितपाथ ॥ १०३॥ कः कहिये श्रुति के विषै, नांव प्रजापति देव। तुम ही देव प्रजापती और न दूजौ भेव ॥ १०४ ।। कः भाष्यो ग्रंथनि विर्षे, नांव वायु को नाथ। वायु हुती अगणित गुणौँ, तुम मैं वल अति साथ ।। १०५ ॥ क; गायो प्रभु सूत्र मैं, नांव सुर्ग को ईस। सुर्ग नाथ सेवें तुमैं, जगतनाथ जगदीस ॥१०६ ।। कः भास्यो वांणी विषै, नांव आतमाराम । तुम परमात्म ब्रह्मपर, जीव सकल विश्राम ।। १०७॥ कः कथियो भारति विषै, नांव जु सुख को वीर। तुम सुखदायक जगतप्रभु, महा सुखी अतिधीर ।। १०८॥ कः लिखीयो अंगनि विर्षे, नांव प्रकास विख्यात । तुम अनंत परकासमय, आनंदी साख्यात ।। १०९।।