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अध्यात्म बारहखड़ी अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं।
- सवैया - ३१ - करि मोहि आपुनौं जु कारिज तु ही जु एक
कितहू न जाऊं देव कीरति रट्यो करुं। कुटिल कुभाव मेदि कूरता निवारि मेरी
केवल दै चक्षु नाथ नांहि कबहू मरूं। कैतव न भाव तोमैं कोप को न लेस कभी
कौतुक न मोहि और सोहि उरमैं धरूं । कंठ जो सुकंठ करि तेरौ ही जु गांन करि कः प्रकास आप रूप ध्याय भौदधी तरूं ॥११०॥
- दोहा - कमला कंज निवासिनी, चरन कमल मैं वास।
शक्ति रावरी है रमा, सोई दौलति भास ।।१११ ।। इति ककार संपूर्ण । आगैं कवर्गी खकार का व्याख्यान करै है।
. . भोक - खला रागादयो सर्वे, येन ज्ञानासिना हता। ख्याति कांक्षा विनिर्मुक्ता, यं भजति तपश्विनः ।।१।। खिन्नो न क्वापि कालेपि, खी प्रकाशी महावल । है खुरी खडग धाराभि, विना सर्वाजिता धरा ॥२॥ खु निश्चयो स एवासो, खू सुमात्रा विभासकः । खेचरैरर्चितो वारैरलभ्यो खैरतिद्रियः॥३॥ मूर्यो न पंडितो विज्ञो, सर्वज्ञो सर्वदर्शिकः। खौघा लभ्यंति ये नाही, खं समानोपि पूर्ण धी॥४॥ खः प्रकाशी चिदाकाशी, यस्य दासी रमा महा। यं जपंति सदाधीरा, स्तं वंदे परमेश्वरं ॥५॥