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अध्यात्म बारहखड़ी
अब तुम सरिज शुद्ध प्रकासौ, मेरी सत्ता मोहि विकासौं । कोर कसर मेटौ सब मेरी, पांऊ परणति दीन्ही तेरी ।। ८६॥ कोटि अनंत चंद अर सूरा, तोपरि वारूं मुनिवर पूरा। कोडां कोडि जु काल अनंता, वीत्यौ मोकौं जगत वसंता ।। ८७ ।। अव निज वास देहु जगराया, मेटि भरमना मूल जु माया। कोढ रूप इह काम विकारा, सो मेरौ मेटौ भवतारा॥८८॥ संवर कोट देहु मम दुर्गा, मोहि न चहिये तोते सुर्गा। कौतूहल कौतुक नहि तैरै, कोटिल्यादिक भाव सु मेरै ।। ८९॥ तू आतम कौतूहल धामा, कौतुक कारी निज विश्रामा। कोटिल्यादि तजै नहिं जौलौं, जीव न पावै तोहि जु तोलौं ।। ९०॥ कौलक कापालिक इत्यादी, तो विनु खोवै जनम जु वादी। कंद निकंदक कर्मनि केरी, दीसै अतुलित शक्ति जु तेरी॥९१॥ तू कंदर्प निवारक देवा, कंचन काई विनु अति भेवा। कंज समान जु तेरे पाघा, मुनिभौंर से करहि जु रावा ॥१२॥ कंत जगत को तू जग देवा, कंप वितीत अजीत अछेवा । कंधै तेरै मुनिमत भारा, मोहू दै प्रभु भव जल पारा ।। ९३॥ कांत अधिक तू कांता त्यागी, कांक्षा मेटि जर्षे वड़भागी। कंठ सुकंठ करे गुन गांवें, सकल कामना दूरि वहां८।।९४॥ किंचित मात्र विभूति न राखें, तेरी भक्ति महारस चाखें। किंकर तेरे जे हि कहांवें, ते तेरो निज रूपहि पां३ ।। ९५ ॥ जम किंकर को मैं कछु नाही, तेरौं शरण गहें उर मांहि। कुंद पहूप हू 6 सित चित्ता, करिक ध्यां दास पवित्ता।।९६ ।। कुंद कुंद हैं तेरे दासा, अति निर्मल निजरूप प्रकासा। कुंठ समाना ले जग जीवा, जे तोकौं गां3 नहि पीवा ॥९७ ।। कुंतादिक सव त्यागि जु शस्त्रा, भऊँ भूप तोकौं जु अवस्त्रा। कंठीरव सम तु जग दीसा, कर्म जु कुंजर जीत अधीशा॥९८ ।।