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________________ अध्यात्म बारहखड़ी केवल दायक तेरी सेवा, केचित करि हैं जगत अलेवा। केतु धार तू केवल रामा, केम दरिद्र रहितो श्री थामा॥७३॥ केलि कुतूहल सब ही त्यागै, तेरी केलि मांहि मुनि लागे। केलि रूप जो है सुर लोका, ताहि न चाहैं तेरे लोका॥७॥ केन प्रकारे तू प्रभू पैंए, सो प्रकार मोकौं हु बतए । केर केर कीयो मुहि नाथा कर्म मिले जड रूप जु साथा।। ७५ ॥ केई तो करि उतरे पारा, केहरि तू नरकेहरि भारा। केसरि चंदन घसि घसि देवा, करै दास तेरी नित सेवा॥७६ ॥ केशव प्रतिकेशव हलि चक्री, तोहि जु पूर्जे होय अवक्री। केयूरादिक तजि आभर्णा, वस्त्रादिक तजि सर्विणा ।। ७७ ।। भजै दास है जगत उदासा, निरमोही निरदोष अनासा। केका राव करें निजभक्ता, जव तू गरज घनपति व्यक्ता ॥७८ ।। तू कैवल्य प्रकास विभासा, कैतव हारी सरल सुभासा। कैतव नाम कपट कौं कैये, कैतव तै कैवल्य न लैए।॥७९ ।। तू कैलाशनाथ जगनाथा, तू कैवल्य निवास असाथा । कैवदिक जे नर नीचा, तोकौं ध्याय भए जु अनीचा॥८॥ कोविद तू कोदंड वितीता, कोप निवारक क्रोध अतीता। कोष त● जे गुणगण कोषा, तुव पद ध्याय होहि भव मोषा।। ८१॥ को न लहै भक्ती करि तोकौं, भक्ति देहु तेरे पद धोकौं। कोईक जन तेरी मत जां., सब ही जन तोकौं न पिछां ।। ८२ ।। कोक समान जु है संसारी, नादि कालि को विरही भारी। मेरी कोक नारि सी शक्ती, सो मैं लखी न केवल व्यक्ती ।। ८३ ।। मिथ्या रैंनि अनादि अनंती, भव्यापेक्षा नादि सुसांती। सो अव तक बीती नहि ईसा, दरसन दिवस न प्रगट्यो धीसा ।। ८४ ।। कोक वधू सी शक्ति न जोई, तातें न लयो नहि कोई। अटक्यो कनक कामिनी मांही, अटक्यो भव बन मैं सक नाही।। ८५ ।।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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