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अध्यात्म बारहखड़ी
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तू कुदाल सम कर्म निकंदा, तू कुधात तें धात करंदा । मिथ्या परणति सोइ कुधाता, तू कुसूत्र नासक जगत्राता ।। ६१॥ तू हि कुलाचलादि परकासा, कुर उत्तरकुर देव विभासा। कुकला कुमत सेय नहि पावै, तेरे मत करि तोमैं आवै।। ६२ ।। कुसमय काल पड़े नहि देवा, जहां होइ तेरी नित सेवा। तू कुसंग ते न्यारा स्वामी, तू कुद्रिष्टि नासक गुण धांमी॥६३ ॥ कुष्ट व्याधि नासँ तुव नामें, नसे कुकर्म बहुरि नहि जांमैं । कुलटासम इह कुथुधि कुनारी, सो हम ते न्यारी करि भारी ।। ६४॥
... .. .. - ::-.. : . ... .. ... कुक्कहिये आगम बिषै, पृथ्वी नाम प्रसिद्ध। तुम पृथ्वी धर अखिलपति, कृत्य कृत्य प्रभु सिद्ध ॥६५॥ कुक्कहिये सिद्धांत मैं, कुत्सित वस्तु जु नाम । तुम सव कुत्सित रहित हो, परमेसुर अति धांम॥६६ ।।
- छंद बेसरी - कूट जगत कै तेरौं ठांमा, कूट कपट के हम जन धामा। हमरौ कूड निवार गुसांई, कूट लोक को दै जग सांई ।। ६७॥ क्रूर भाव तेरै नहि देवा, तू अक्रूर क्रूर नहि लेवा। . कूडी साखि भरै जे जीवा, ते तोकौं न लहैं जग पीवा ।। ६८॥ कूट कुलेष क्रिया जे कारें, ते मूढा तुव भक्ति न धारें। कृषमांड आदिक फल निंद्या, तजै दास तेरै जगवंद्या॥१९॥ कूट रहित तू देव अकूटा, जगत कृट को तृ ही कूटा। कूर लोक तोकौं नहि जानें, कूरभाव हिरदै मैं आंनें ।। ७० ॥ कूल जगत को तू जगनाथा, मेरी कूक सुनौं वड़ हाथा। कृखि मात की मेटौ स्वामी, करि अजरामर अज अभिरांमी ।।७१ ॥ केवल रूप अनूप अकेला, केवल ज्ञानानंद जु भेला। केवल लब्धि मूल जग स्वामी, केवल सम्यक रूप अनामी ।। ७२ ।।