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अध्यात्म बारहखड़ी
चउचालीस जु दोष प्रभु, दारि करौं निजदास । मद मूढत्व अनायतन, हरौ सकल मल रास ।। १३ ।। व्यसन हरौ सब भय हरौं, अतिचार हरि पंच। ए चउचालीसा अघा, दारि महा दुःख संच ॥१४॥ चउपन दूनें नाथजी, मनिका फेरै लोक। पन का मनिका नौ फिर, तो लो.. सुख थोक ॥१५ ।। घउसठि चमर जु ढारही, सुरपति करि करि भक्ति। तेरौं पार न पांवई, तू दयाल अतिशक्ति॥१६॥ चउहत्तरि दूना सवै प्रक्रिति टार क्रिपाल। दै अपनी निज वास जो, अविनश्वर गुनपाल ।।१७।। चउरासी मैं हूं रुल्यो, विना भक्ति जगदीस । अव अपुनौं निज दास करि, हरि अविवेक मुनीस ।। १८ ।। चक्रवा सम भवि जीय हैं, तू दिनकर सम देव । भव्य चकोर समान हैं, तू ससि सम अतिभेव ।।१९।। चमत्कार कारण तु ही, ज्ञानानंद शरीर। चर्म रोम मल अस्थि मय, देह न तेरौ धीर।। २० ।। चढि जग सीस जु तुव पुरै, आवै तुव मत पाय। चटक मटक रहितो तु ही, रहित विभाव सुराय ॥२१॥ चणकादिक द्विदला प्रभू, दही मही भेला न। लेबै तेरे दास कछु, वस्तु चर्म मेला न॥२२ ।। चरन कमल तेरे भनें, चलन चलें अति शुद्ध। तेरे चरित जु उर धरै, ते दासा प्रतिबुद्ध ॥ २३॥ चलबिचल जुता त्यागि कैं, निश्चल है तुव ध्यान। करें तेहि पांवें प्रभू, केवल दरसन ज्ञान ।। २४ ।। चर्म रंध्र नारीनि की, तामैं राचे मृढ़।. चर्मचोर न गांव तु., तृ सुशील अतिगूढ ।। २५ ।।