________________
06.
अध्यात्म बारहखड़ी
अंतर्भूति विशेष तोहि जु गहैं, नां बाहिरी से सकै । जो त्यागे वहिरंग भूति जु सबै तार्कों न कर्मा तकै । अंतः मध्य वसै जु तू हि तव ही रागादि भर्मा रूकै । तू ही देव सहाय और न परो तोतैं जु मो हो सकै ॥ ३७ ॥
अंधा तोहि जु छांडि और हि भजैं, ते पांवई दुर्गती । मोहांधासुर नासको जु परमो तू दायको सद्गती । अंधा आंखि लहँ जु तोहि सुथकी, तू ज्ञानचक्षु यती । अंसा हू नहि बुद्धि मो महि प्रभू क्यौं वर्णऊं श्रीपती ।। ३८ ।। ਕੈ ३१
अंबुधि ते ऊपनी जु लक्षमी वखांनें लोक,
तेरे गुन अंबुधि में ऊपनी अनादि की । वह गुन रूपिनी सु रावरी अनंत शुद्ध
निज सत्ता एक दूसरी न आदि की ॥ वह जग अंवा अर अंबिका कहावै नाथ,
ओर नांहि अंबा नहि अंबिका जुवादि की। जीवनि की घातिनी सुपापिनी कहावै देव,
अविका भवांनी तेरी शक्ति करुणादि की ॥ ३९ ॥ अथ साधकी अवस्था
-
-
अंवर ही अंबर है घोढिवे के काज जाकै धरा सी सुसेजु जाकै वडी है अमीरी । दिसा परधांन परधांन निज भावभाई,
ज्ञानादि अनंत जाकै भले हैं स्वसीरीतें ॥ गुहा गिरि गेह अर नेह सव जीवनि तैं,
प्रज्ञा सी सुगेहिनी महेसिनी उजीरी तैं। रीरी नाहि भाखियों न जाचिवों जु काहू पैंहि,
कोटिक अमीरी वारि डारूं या फकीरी पैं ॥ ४० ॥