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लोक
अःकाराक्षर कर्त्तारं देवं देवाधिपं विभुं । सर्वाधारं निराधारं वंदे वंद्यं सुराधिपैः ॥ १ ॥
दोहा
अ: कहिये ग्रंथन विषै कृष्ण नांम
कृष्ण जु आकर्षण करै,
गुण पर्यय
..
व्यवहारें सब ज्ञेय कौ, सुरनर मुनिवर मन हरे
अध्यात्म बारहखड़ी
आकर्षण जु कृष्ण सुनांम
कृष्णभाव नहि
प्रभु तुम ही कृष्न जु महा, कृष्ण पूज्य परमात्तमा, तुम परमेश्वर अ: कहिये फुनि श्रुति विषै, नांम महेश्वर तुम ही ईश महेश हौ, और न दूजौं
—
मैं मति हीन जु राचि
परतक्ष ।
अत्यक्ष ॥ २ ॥
अ आदी अः परजंताक्षर
करेय ।
धरेय ॥ ३ ॥
कोय |
वर छंद अ: काराक्षर जिनवर तू जगनाथ,
सव अक्षर भासइ तू अति गुण साथ । हमरी भूल मिटाय जु करि निजरूप,
अवर न चाहहि अति जित जगपति भूप ॥ ६ ॥ सव जीवनि की आस तु ही सव पास,
पासि हरन सुख रासि करहु निजदास । भुकति मुकति दायक तू सरवसदाय,
होय ॥ ४ ॥
देव |
भेव ॥५॥
अवर न चहहि राय भजहि तुव पाय ॥ ७ ॥ सोल,
सकल विभास देव सु तू हि अडोल । विषयनि मांहि,
तोहि विसारिउ नाथ चितारिज नाहि ॥ ८ ॥