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अध्यात्म बारहखड़ी
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- भोक - वश्येंद्रियं वृषाधीशं, वाक वादिनि भासकं। विशालाक्षं च विश्वेशं वीतरागं गत क्लमं॥१॥ वंदे वेदांग वक्तारं, निर्वेद निरदूषणं । वैवस्वत हरं धीर, व्योम तुन्यं च निर्मलं ॥ छ ।। सर्व मात्रा मयं धीरे बंदे वं शरणं विभुं॥२॥
- उपेंद्र बज्रा छंद - भाष्यो वकारो घरणो जु देवा, धारे दिगाधीश जु तेरि सेवा । कहयो वकारो फुनि वायु व नामा, तोकौं जगद्वायु लगै न रामा॥१॥ तु ही जु वक्ता वदतांवरो है, वश्यद्रियो देव दिगंवरो है। वृषो वृषांको वृषभोहि तू ही, देवा जु तू ही वृषभध्वजो ही ॥२॥ धर्मो पवित्रो जु वृषो कहावै, धाँ तू ही अति धर्म माय। अवर्णवर्णो वृषभांक स्वामी, वर्णं तु कौंन सुभांति नामी ॥३॥ तृ ही जु देवा सुवरिष्ट धी है, तू ही वृहद्भाव धरो यती है। वृहस्पती की हु न बुद्धि औसी, गावै जु कीर्ती कछु है जु जैसी ॥ ४॥ वृद्धो प्रवृद्धो वर्दायको तू, शुद्ध स्वभावो जग नायको तू। आनंदमूर्ती अति ही विलासा, ध्यां न तोकौं जु अभव्य रासा।। ५ ।।
- लंद देसरी - व्यक्त वशी जु वरेण्य तु ही है, वर्षीयान जु नाथ सही है। वसै जिनौं के घटि तु देवा, हरै तिनों का पाप अछेवा ॥६॥ वज्रागनि सम त्रिना एही, सीत करै तू निजरस देही। वही तू ही जाकौं ऋषि ध्या, वहीं तू हि नारद जस गांवै॥७॥ वही तूहि वज्री अति सेवै, वही तू हि जाते शिव लेवें। वही तू हि चक्री सिर नांवें, वही तू हि फणपति अति गांवै॥८॥