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अध्यात्म बारहखड़ी
-- दोहा -- लं पृथ्वी को बीज है, वं जल को है वीज। रं अगनी का बीज है, यं मारुत को बीज ।।५८ ॥ हं आकाश को वांज है, सब योजान को बीज। काज वीज तू देव है, अदभुत सुर अवनीज॥५९॥ लः कहिये प्रभु दांन कौं, दांन प्रकासै तू हि। दाता तो सम और नहि, दीन दयारन प्रभूहि ।। ६० ।।
अथ वारा मात्रा एक कवित्त मैं। लक्षन अनंत तोमैं, लायक तु ज्ञायक है,
लिप नाहि काहू सौंहि लीन निज रूप मैं। लुपै नाहि लुखौ नाहि, लुखौ भव भोगिनी मैं,
लेप नाहि जाके कोऊ आनंद स्वरूप मैं। लै लै आप माहि मोहि लोभी नाहि लहै तोहि,
लौल्यता न दासनि कै ते न भव कूप मैं। लंपट लहैं न सेव लः प्रकास तू अछेव, अकथ स्वरूप नाथ आ3 नां प्ररूप मैं॥६१॥
- कुडंलिया छंद -- लाल तिहारी लक्षमी ता सम और न कोय,
निज स्वरूप लावण्यता सो अनुभूती होय। सो अनुभूती होय, शंकरी सोइ विभूती,
जगत ललमा होइ, लाडिली आनंद भूती। प्रभा जिनेंद्रा ऋद्धि, मोह रागादि प्रहारी,
भाषै दौलति ताहि, लक्षमी लाल तिहारी।। ६२ ।। इति लकार संपूर्ण । आमैं वकार का व्याख्यान करै है।