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अध्यात्म बारहखड़ी
वन्यो ठन्यो अति सुंदर रूपा, वनि आवै तोकौं बड भूपा । तेरौ सौ वानिक तोही पैं, वाचस्पति नहि परद्रोही पैं॥९॥ वातरसन निर्वात जु तू ही, वागीश्वर धीश्वर जु प्रभूही। वायु मूरती है जु असंगा, बारि मूरती शांत अभंगा ।। १० ।। वह्नि मूर्ती कार्य हि जा.. परी .. शाति जु. ध। .. नभ मूर्ती तु है जु अलिप्ता, सर्वस्वरूप तू हि अति गिप्ता॥ ११ ।। वायुरोध उपदेश कर तू, मन रोधन के हैतु कहै तू। वायु न तेरै काय हु नाही, व्यापक ब्रह्म तू हि निज माहीं।। १२॥ वात्सल्यादि प्रकासै तू ही, वाच्य वितीत अवाच्य प्रभू ही। वलि जाऊं तेरी जगनाथा, वारिज चरन भC मुनि नाथा ।। १३॥ वाधा रहित विशाल जु तू ही, विद्यानिधि विद्वान प्रभू ही। विपुल ज्योति धारक तू देवा, विश्वंभर दे अपुनी सेवा ।। १४ ।। तृ हि विविक्त विवेद सुवेदा, जपहि यतीश्वर होय अभेवा। सुविधि विधाता अविधि विनासी, विनय मूल अति धर्म प्रकासी ।। १५ ।। सुहृद विनेय जनों का तृ ही, अविहीत अस्तिथ तू हि प्रभूहि। तू अविलीन विलीन विभावा, तू हि विकल्मष परम स्वभावा ।। १६ ।। विगतराग अविकार विशाला, विगत विहार अहार दयाला। नित्य विहारी अढलं विहारी, रंगविहारी तू हि उधीरी ॥१७॥ प्रभू विदांबर परम सुरूया, विश्वेश्वर भूतेश्वर भूपा। विभवो भावो तू हि अभावो, विश्रुत विश्वातम विनु दावो॥१८॥ विश्वशीर्ष अविनासी स्वामी, विद्या विश्व देय अभिरामी। विश्वकरण विश्वेशो ईशा, विष्टरश्रन्त्र तू श्री जगदीसा ।।१९।। विश्वरूप विस्वास सुरूपा, तू विशिष्ट अतिशिष्ट अनूपा। महाविक्रमी विश्वमुखा तृ, विश्वासी सवको हि सखा तू॥२० ।।