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अध्यात्मब
क्षीण मोह तू अक्षुण क्षुद्रभाव नै विभिन्न,
हूं प्रकाश मंत्र भास पूरण विग्यान तैं। क्षेमंकर क्षेत्रनाथ :म रूप क्षोणी नाथ,
क्षौमनांहि भूषन न तेज अति भान तैं। क्षतउ तू क्षांति रूप क्षः प्रकास है अनूप भूप सब लोकनि को भिन्न छल मान तैं।। ३६॥
- कुंमलियः छर . . . . . . . . .. . क्षायक सम्यक भासिनी, पारिणामिका शक्ति,
मिथ्यारूप क्षपा हरै, अक्षुणा अव्यक्ति । अक्षुणा अव्यक्ति, क्षुण कीये सव कर्मा,
क्षीर समाना विमल, चेतना भूति सुधर्मा । क्षमा अविका देवि, लछिमी रमा अमायक,
भासै दौलति ताहि, भासिनी सम्यक क्षायक ।। ३७ ।। स्वामी तेरी कांति जो, क्षांति रूप अति शांति,
सोई गौरी शुद्धता, नित्य प्रसन्न प्रशांति। नित्य प्रसन्न प्रशांति, परम ज्योति धुति आभा,
प्रभा प्रभावति सोइ, तत्यता वस्तु महाभा। सत्ता सिद्धि विशुद्धि, ऋद्ध राधा अभिरामी, स्यामा दौलति रूप, कांति जो तेरी स्वामी॥ ३८॥
- दोहा - चेतन देव सुचेतना, देवी एक स्वरूप। वह सुद्रव्य वह परणती, गुन रूपा चिद्रूप ॥ ३९ ॥ नाम अनंत सुदेव के, देवी नाम अनंत। आपुन माह पाइए, भगवति अर भगवंत ॥ ४०॥ सब अक्षर मात्रानि मैं, सकल जेय मैं देव । देवी हू सब मैं लसै, विरला वुझै भेव ॥ ४१ ।।