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अध्यात्म बारहखड़ी
उज्झित जग जंजाल तैं, उतकंठा तें दूर । उतकंठा मेरी हरौ, दै सेवा भरिपूर।। १६ ।। उच्छेदक जग फंद तू, हरि मेरे उदमाद । उणमणि मुद्रा दास कौ, दै जोगी अविवाद ।। १७ ।। उनमांन जु तेरौ नहीं, उनमतता नहि नाथ । तू उनमन स्वभाव मैं, रमैं रमा के साथ ।। १८॥ रमा शुद्ध सत्ता महा, द्रव्य गुणातम रूप। चिनमुद्रा निजशक्ति जो, गौरी अतुल अनूप ॥१९॥ उल्लालातम इह जगत, या सम और न सिंधु। उपरि जगत के तू सही, काटि हमारे बंधः ॥ २० ॥ उच्च महा उतकिष्ट तू, जर्षे उमापति तोहि । उपना सब दूरि है, तोते सत्र सुख होहि ।। २१॥ उत्सर्गी उत्सर्गमय, इहै त्याग को नाम। . तू त्यागी संसारको, उपशांती अभिराम ॥२२॥
- छंद पद्धरी :उपवास देहु निजवास देव, अति है सुउजागर अतुल भेव । उदितोदित तात उपाधि चूरि, मुनि उपाध्याय ध्यावे सुसूरि ।। २३॥ उदईक विभाव गहै न तोहि, उन्मीलित प्रगटित तू हि होहि । उतकिष्टा उतकिष्ट जु असाथ, तेरी सुउपासन देहु नाथ ॥ २४ ।। उल्हास विलास अपार देव, तू परम उपास्य अनंत भेव । तू है न उपासक शुद्ध तत्व, सब तोहि उपासै अतुल सत्व ।।२५।। उपहासन ते रहितू असंग, प्रभु उर अंतर भासै अभंग। उद्योतमांन अति उदयवान, उदवेग वितीत अनंत ज्ञान ॥२६॥ उतकों इतकौं न फिरहि तृहि, तू है सुउत्तारक भव समृहि । उतशृंखल भाव न एक पासि, तु उतशृंखल स्वामी अपासि।। २७॥