________________
अध्यात्म बारहखड़ी
१७५
- थोक - धर्माधीशं धराधीश, धातारं धिषणाधिपं । शुद्धं बुद्धं सदा शांत, धीरं वीरे धुरंधरे ॥ १॥ विधुतारि ध्वजाधीश, धूम्रमार्गादि दूरगं। ध्येयं मुनिगणैधीर, धैवंतादि प्रकासकं ।। २ ।। सर्वाक्षरमयं देवं, धोमात्राविभासकं । धौतरार्ग विनिर्मोहं, ध्वंसकं पुण्य पापयो॥ ३ ।।
धः प्रकाशं चिदाकाशं, शुद्धाकाशं प्रभाधरं । ...बंदे नाणं माथी. कर्म मर्म निवर्हणं ।। ४ ।।
-- मालिनी छंद - धरम करम भासै धर्म को मूल तू ही,
धरम अतुल्ल तोमैं, आत्म भावा समूही। धरम करण रूपा, धर्म है जीव रक्षा,
असति बचन त्यागा, नाथ तेरी जु पक्षा ।। ५ ।। धन प्रभु पर को जी, चोरियां नर्कि जांदै,
अर परवनिताजी सेययां कष्ट पार्दै । भल नहि धन लोभा, तू हि संतोष गावे,
ज्ञान विनु नहि धर्मा, धर्म दासा जु भावै।।६।। धनपति पति तोकौं, कंठ शुद्धो जु गावै,
धनपति नहि तो सौ, तू धनी धर्म भावें। धन निज अनुभूती, और नाही विभूति,
अविचल धन तोपैं, नांहि धारै प्रसूती॥७॥ धरणिधर अनादी, तें धरे शुद्ध भावा,
धनि धनि प्रभु तू ही, है धरानाथ रावा। अति गति धनपाला, तू हि है धर्म चक्री,
धनद विसद तू ही, तोहि से जु चक्री ॥८॥