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अध्यात्म बारहखड़ी
- दोहा . धर्मनाथ धन त्याग को, धनदाता धरमज्ञ। अति धनाढ्य तू धवल है, धरमाधिक्ष सुविज्ञ ।।९।। धनुष ज्ञानमय राव, बत्तबांन अघहार । धनुरद्धर वरवीर तू, कर्म हरन अविकार ॥१०॥ धक धल आनि स्वरूपातु, करमिंधन क्षयकार। तू हि धनुजय नाथ है, पवन जीत बलधार।।११।।
– चौपड़ी - धन्वंतरि है वैद्य जु नाम, कर्म रोग हर तू अभिरांम। अति रोगी हौं दुरवल महा, धज नाहि जु विभावनि गहा॥१२॥ धस्यों मोह घट घर मैं चोर, धप्यो न पापी करत जु भोर। लीनौं सरवसु पिंड न त®, या पकस्यो जिय तोहि न भजे ॥१३॥ धजा धार तू त्रिभुवन राव, तेरे द्वार निपख्यो न्याव । मोह हरौ द्यावो गुन माल, मोह जीत तुम लोक विसाल ।।१४।। धडक काल की कछु हु न है, जब जिय चरन सरन तुव गहै। धाता ध्याता ध्यांनी तू हि, ध्यान गम्य है तू हि प्रभृहि ॥१५॥ धारण रूप धेय तू देव, ध्यानै सुरनर मुनि अतिभेव। धातु न गात न कर्म न कोय, तू चैतन्य धातु हैं सोय ॥१६॥ धाम न गांम न ठांम ना जोय, धारावाही सर्वग होय। धा कहिये लक्षमी को नाम, श्रीधर श्रीवर तू अभिराम ॥१७॥ धारक गुन पुंजनि को तू हि, षटकारक मय अमित समूहि। धारासम इह भवजल धार, याते वेगि उतारों पार ।। १८ ॥ धावत धावत भव वन माहि, खेद खिन्न हूवो सक नाहिं। निज पुर को दरसावो पंथ, धारहु वात देव निरग्रंथ ॥१९॥