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अध्यात्म बारहखड़ी
कहै चंद की वुध द्विजगज, तू द्विजराजनि को पतिराज । रुलत रुलत हूं दिक अतिभयो, महाभाग तँ तोकौं नयो । ४१ ।। अव सव दिकता मेटि दयाल, देहु आपुनौं दरसन लाल । तु द्रिष्टा द्रिष्टांत सवै हि, तोहि फवे सब पाप दवै हि॥ ४२ ।। दीरघ दरसी दीरघ दमी, दीपतिवंत तु ही अतिक्षमी । दीप्ततपा ध्यां मुनिराय, दीरघ सोच न तेरै राय ।। ४३ ।।
___ - मालिनी छंद - दीना नाथा, दीन वंशुल टु ही दमा दी, दीयतू प्रभू ही। दीपा संख्या, वीत हैं नाथ तैर, दीना तोकौं, पाय दैवत्त्व प्रेरै ।। ४४ ॥ दीनारादी, त्यागि से मुनीसा, तृ निग्रंथी, देव हैं लोकसीसा । दीनें तैं ही, ज्ञान आदी अनंता, भीने तोमैं, त्यागि भूती जु संता।। ४५।। दीजे दांना, लीजिये रांम नामा, तू ही रामो, सर्व व्यापी सुधामा। दीसे तू ही, योग निद्रा मझारे, घ्यांवँ तोकौं, माधवा जोगधारे।। ४६ ।। दुष्टा कर्मा, दुख्य दाई सवों का, टारै तू ही, नाथ है तू मुन्यों का। तोकौं ध्यायें, दुर्गति नाहि पावै, तोकौं गायें, दुर्मति नाहि भावै ।। ४७ ।। दुख्या मुख्या, नांहि तैर जु कोई, आनंदी तू, ज्ञान रूपी जु होई। सौजन्यो तृ, दुर्जना नाहि पावै, योगारूढा, तोहि योगी हि ध्यांव।। ४८ ।।
- दोहा - द्रुघण वन को नाम है, वजी तेरे दास। दुराधर्ष अति कठिन तू, दुष्ट न पावें पास ॥ ४९ ।। द्युति धारी दुति रूप तू, द्युतिकर दुर्ग अछेव । दुरति हरन दुरगति हरन, दै दयाल निज सेव॥ ५० ॥ दस्यो नहीं दुरि है नहीं, दुरै न कवहू देव। बुद्धि दुष्टता की हरे, सिष्ट प्रतिष्टित एव ॥५१॥