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________________ अध्यात्म बारहखड़ी १७३ - दोहा द्वै अधिका सत्तरि प्रभू, कला जगत की होय। तेरे पावे को जतन, ज्ञान कला है सोय ॥७३॥ दोष हरन दुख हरन तू, दोषा हर जगदीस। दोषा नाम जु रात्रि को, भ्रांतिमई निसि ईस॥७४ ।। दोषाकर है चंद को, नाम संसकृत माहि। चंद सूर अर सूरि सहु, तोहि भजें सक नाहि ।। ७५ ।। द्योति अनंत धरै तु ही, अति सोभा को पुंज । द्योढि करै तोसौं कवन, तू है आनंद कुंज॥७६ ॥ धोढ दिवस की साहिवी, जगवासिनि की नाथ। तेरी अचल जु साहिवी, तू समरध वड हाथ॥७७ ।। कियो दोहरौ अति प्रभु, कर्म मिले अति जोर। दिये जु दोटा भव विषै, तू दुख हरि हर रोर॥ ७८ ॥ दोव समान गन्यो मुझे, खोद्यो खुरपा होय। कमनि अव किरपा करौ, हरै कष्ट प्रभु सोय ॥ ७९ ।। दौर्जन्यादिक अवगुणा, धारै पापी मोह । तुम सजन असी करौ, करै नही इह द्रोह ।। ८० ॥ दौर्गत्यादिक टारि त, निहचल गति दै नाथ। दौर अनंत धरै तु ही, दौलति तेरै साथ॥८१ ।। दंभ रहित अति सरल तू, दंभी लहै न तोहि । द्वंद रहित निरद्वंद तृ, निरवांनी गुर होहि ॥८॥ दंदभि बाजा रावर, वाजें दीनदयाल मोह डरै पातिग दरै, हरषै भव्य रसाल ।। ८३ ।। दंपति नाम जु दोय की, तू एको द्वय रूप । दंगलवासी मुनिवरा, ध्यांचैं तोहि अनूप ।। ८४॥
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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