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सवैया
देस त्यागि कोस त्यागि, रोस त्यागि दोस त्यागि, तोहि मैं रहौं जु लागि, तेरौई जु होय जी । छांडौं माया मोह सब खंडों को सव
शुद्ध रूप देखूं तेरी ध्यांन मांहि जोय जी । देह तैं जु नेह छांडि, कुटम सनेह छांडि,
तोही तैं सनेह करि छांडों दोष दोय जी । शुभ अशुभ नाथ त्यागि तेरी गर्छौ साथ,
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अध्यात्म बारहखड़ी
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तोही को आराध देव तू है एक कोय जी ।। ६५ ।। सोरठा
द्वैताद्वैत न कोय, तू अवाच्य द्वै रूप है। दैव अतुल गति होय, दैत्य देव सव ही भजें ॥ ६६ ॥
नहीं दैन्यता नाथ, पीरें जार्कों कवह जाको पकरै हाथ, तू वडहाथ अनाथ द्वै नहि तोमैं दोष, द्वै अधिका दस तप कहै । देहि मुल्यों को मोख, कहै परीसह बीस द्वै ॥ ६८ ॥
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भी ।
जी ॥ ६७ ॥
द्वै अधिका प्रभु तीस लक्षण धर वड भाग नर । तोहि भजैं जगदीस तू ईसुर श्रीसुर प्रभू ।। ६९ ।।
द्वै अधिका चालीस नांम कर्म की प्रकति हैं।
तो मैं एक न इस
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प्रकति परें परवीन तू ॥ ७० ॥
द्वै अधिका पच्चास देवल तेरे नाथजी ।
नंदीसुर जु विभास, दीप आठमों धारई ॥ ७१ ॥
द्वै अधिक प्रभु साठि
मारगणा भासें तु ही ।
तू है आगम पाठि, अपठ पाठ अवनीस तू ॥ ७२ ॥