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________________ अध्यात्म बारहखड़ी भरत हैमवत हरि जु, क्षेत्र फुनि महा विदेहा । रम्यक्क अर हैरण्य वत सु औरावत जेहा । सप्त क्षेत्र ए नाथ, दीप जंबू मैं भासें । सर्व दीप को देव, एक तू अतुल प्रकासै। हैं तू ही जु उधार ईसा, और न तोसौ दूसरा । तू हि ज्ञान आनंद रूपा, तो विनु सव जम धूसरौ ॥ २८ ॥ है तो सव सिद्धि, ऋद्धि कौ सागर तू ही । होता पापनि कौ हि, होमई कर्म समूही । होड तिहारों और, करइ को सुरनर नागा । तू थिर चर को नाथ, भासइ ज्ञान विरागा । होत सवै सुख तोहि सेयें, तू सुख दुखतैं रहित हैं। तू आनंद सुकंद स्वामी, गुन अनंत तैं सहित है ॥ २९ ॥ २११ होनहार अर भूत, वर्तमान जु सव जांनैं । तोतें कछु न परोखि, तू हि रागादिक भानें। होय सकल कल्यांण, तोहि तैं अंतर जामी । होहु होहु भवतार, नाथ तू हमरी स्वामी । हो हो जिनवर देव देवा, सुनि विनती जगनाथ जी । साथ देहु अपनौं निरंतर, भवदुख पावक पाथ जी ॥ ३० ॥ होवै ध्यान मझार लीन चित्त जु मुनि जन काँ। तोर्तें भेद रहै न, भव्य जीवनि के मन कौ । अभवि न पांवैं तोहि ज्ञानघन अमृतघन तू । चिदघन अतन अमान, देव जगजीवन जिन तू । होठ न हालै कर न फिरई, वयण उचारो नां हुवै। सोहं सोहं अतुल मंत्रा जपि अजपा तोहि जु छुवै ॥ ३१ ॥ होयगाँ तू हि हाँ तू ही जगनाथ, है तू ही परतक्ष लक्ष अत्यक्ष " निरंतर । अनंतर ।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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