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अध्यात्य बारहखड़ी
ठट्टनि को नायक तुही, अति ठट तेरै पासि। ठाकुर मोहि उधारि तू, आधौ आप प्रकासि ॥८॥ ठाकुर तू इक और नां, तुव ठकुराई साच। चिंतामणि जगमणि तु ही, और जु जैसे काच ॥९॥ कहवति के ठाकुर घनें, ते झूठे अवनीस । काल जीतिवे सक नहीं, कायर कुमति अधीस।।१०।। ठाकुर तू जगजीत है, काल जीति अति सूर । चाकर तेरे सुरनरा, तू ठाकुर भरपूर ॥११॥ ठालिप तेरै नांहि हैं, ठाट अनंत जु नाथ । गुण पर्याय विहार तू, धरें अनंत जु साथ ॥१२॥ तू ठालो जुं ठसाक है, राज न काज न कोय। साथ इसौ नांहि को. एकल भड त होय।।१३।। ठाढे आसन धारि कैं, परम समाधि स्वरूप। ते मुनि तोहि जु ध्यांवही, तू मुनि तारक भूप॥१४ ।।
- सवैया - २३ – ठाहरि जेहि रहैं तुव मांहि, नहीं जिनकै भवभाव मुनीसा । ध्यान करें न कछु पर आंन सुजांन महामति के अवनीसा । तेरहि ध्यान विनां नहि ज्ञान, नही निरवांन तुही सुगुनीसा। तू जगजीवन है जगनाथ जिनिंद मुनिदं सु ईस अनीसा॥१५ ।। नाहि ठिगा न ठिगी तुव माहि, ठिगै न किसै प्रभु तू हि अवंचा। तू अविनासि ठिकाणु सदा निज दासनि को प्रभु देहि अरंचा। नहि ठिलै प्रभु ठेलिउ तू हि, मिलै नहि तो महि नाथ प्रपंचा। तो विनु, ए ठिणकैं जगजीव, परे वसि कर्मनिकै धरि पंचा।। १६॥ ठीक जु वात कहैं गुरदेव सुमुरिख ते नर तोहि न गांवै। पंडित तोहि भ6 गुनवांन लहैं निज ज्ञान सु जे तुहि ध्यादें। ठींगड ले तुव भक्ति तनौं अति कूकर कर्मनिकौं जु नसावें। ते ठुकराय सवै जडभाव अनंत प्रभाव महापुर पावै ।। १७ ।।