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अध्यात्म बारहखड़ी महाचिनदंती मु रोक जितेंद्री,
तुझै ध्यायवे कौं तु ही है अतिंद्री। विना चित्त जीतें नहीं होय भक्ती, . नहीं चित्तवाक्काय तेरै असक्ती ॥ ४३ ।।
.- दोहा :चिदघन चिनमय देव नू, चिनमूरति चिर रूप। चिरंजीव जगपीव तू, शुद्ध चिदातम भूप ।। ४४ ॥ चिदाकार चितदूर तू, चिदाधार अतिचित्र । अति विचित्र परतक्ष तू, जगजीवन जगमित्र ॥ ४५ ॥ देव चिदंकित नित्य त, टारि सकल भ्रम जार। हौं जु रुल्यौ चिरकाल तैं, अव उधारि भवतार ।। ४६ ।। चिग रूपा विभ्रांति जो, साकी वोट अधीस। तू न लख्यो प्रभु पास ही, परमेश्वर अवनीस॥४७॥
- सोरटा - चीन्हीं मैं नहि तोहि, चीन्हें विषय जु जगत के। अव तू दै शिव मोहि, न्यारौ करि भव भ्रांति 6 ।। ४८ ।। चीर रहित तू देव, निराभर्ण भासुर तु ही। देहु दिगंवर वेस, तु ही अछेत्र अभेव है॥४९॥ चील तेरै चालि, लहैं तत्व जोगीसुरा। चीलै तर घालि, मैं मारग भूलौ फिरूं ॥५०॥ चार पटंबर त्यागि, त्यागै सर्व जु कामना। ते मारग लागि, मुनि निवृत्त है पद भ6 ।। ५१ ।। चीतादिक अति दुष्ट, हिंसा कारण जीव हैं। तिन हि न पालें शिष्ट, तेरी आज्ञा जिन सुनी॥५२ ।। चुणक वत्ति करि तोहि, लहैं ऋषीश्वर ब्रत धरा। निज सेवा दै मोहि, और न चाहिये नाथ जी॥५३॥