________________
अध्यात्म बारहखड़ी
चुणक ब्रति दें मोहि, जाकरि तोहि मुणौं प्रभू। देखों सब मैं तोहि, वह द्रिष्टि दौ सांइयां ॥ ५४ ॥
चुगली है अति पाप, मैं निंदी सव चुगल लड़ेंगे ताप, तोहि न पावैं
ग्रंथ मैं । ते सठा ।। ५५ ।।
च्युत व्रत लहूँ न तोहि, तू अच्युत जगदीस है। तेरी टहल जु मोहि दें और न कछु
१०७
चाहिये ॥ ५६ ॥ जी ।
करें ॥ ५७ ॥
नांही नाथ
चुर चुराट की टेब तेरे तू है शांत सुदेव, सेव देहु किरपा
सवैया २३
चूरामनि लोक कौं, अलोक परकासी तू हि, चूक मेरी माफ करि, तोहि नहि ध्याये की । चूप नांहि तेरे सव चूप तैं रहित ईश,
चूप एक तेरै, सर्व जीव सुख दाये की । चूल सव जगत की सुमूल मोख मारग को,
तेरी सेव करें साध ज्ञान सुख भाये की । चूर गिर करम कौ करिवे कों बज्र तू ह्नि,
यहाँ दीनानाथ लाज सरन जु आये की ॥ ५८ ॥ चूहे सम हौं जु जीव कायर अनंत देव,
रहौं तन विल मांहि मूरिख अनादि काँ। मेरी घात लागि रहे पाप पुन्य वायस जु.
काल मारजार मोकों तकत है आदि को । मिथ्याभाव स्वान मोहि मारि कौ संग लागे,
इन्तैं छुडाय राय, करे भव दाहि कौं ।
नू तौ दयानाथ तेरे साथ सव शुद्ध भाव,
P
तो छतां हुं पीडित रहौं जु महा वादि कौ ॥ ५९ ॥