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अध्यात्म बारहखड़ी
आस्पद कहिये थान, तेरे थांन न आंन को । स्व स्वभाव भगवान, लोक सिखर राजै तु ही ॥ १२२ ॥
छंद -
आदि धुरंधर आदि जगत गुर, आदि सकल की आदिनाथ आदीश्वर स्वामी आदि सुदेव
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तू
ही ।
प्रभू ही ॥ १२३॥
आदि आदि कर आप, आदि वर आदि परंपर आपा । आप आदि मुनि आप, सही मनु आदि रम्य निहपापा ।। १२४ ।। आसन अचल.. अटल प्रभु, सासन नहि आक्रोस कदापी । आ कहिये सामस्ति प्रकारें, शुद्ध सुबुद्ध उदापी ॥ १२५ ॥ आधि न व्याधि रोग रागादिक मोहादिक कछु नाही । हरें आपदा जीव रासि की, नहि आताप कहां हो ॥ १२६ ॥ आलस नहि आलंबन कोई, है आलंबन सबका । आप्त नांम आवरण वितीता आतम गुण धरढ बांका ॥ १२७ ॥ चौप
तू आकार रहित जगदेव, तू आधार वितीत अछेव । सबकौ तू आधार दयाल, आश्रम सबकों त्रिभुवन पाल ॥ १२८ ॥ आदि पुरान पुरष परधान, तृ आहार रहित भगवान । तेरै नहि आगार कदापि, तू आधार प्रगट्ट उदापि ॥ १२९ ॥ आखंडल सेवैं तुव पाय, इंद्रनि कौ पति तू मुनिराय । प्रभु आदीस आदि जोगीस, आचारिज प्रणमै नमि सीस ॥ १३० ॥ आर्या भक्ति करें धरि भाव, आनंदी आनंद स्वभाव | आद्युपचारी रहित प्रचार, आदित आदि भजैं निरधार ॥ १३१ ॥ आदि महंत न तेरै दृजि, थिरचर कौ प्रतिपालक पूजि । आदि न अंत न तेरे कोय, तू अनादि अनिधन प्रभू होय ।। १३२ ।।
आदि अविद्या भेर्दै तू हिं, आदि मनोहर रूप समूहि । आतम बोध प्रदायक देव घाटिकर्म (घातिकर्म) टॉर जु अछेव ।। १३३ ।