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अध्यात्म बारहखड़ी
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कार्यों तू ही, कारणो तू हि स्वामी, काहू मैं तू, नाहि कीनां सुनामी। कारूण्यो तू, जीव रासी जु पालै, काठिन्यो तू, काम क्रोधादि टालै।।३६ ॥ कायोत्सर्गा साधु ध्यांवै जु तो ही, कामी क्रोधी मैं महा तारि मोही। काया माया सर्व झूठि हि स्वामी, काया काष्ठा तो विनां है अकांमी।। ३७॥ लागे काटा जीव के नादि नै जी, काटै काटा तू हि आदेस ते जी। कास स्वासा आदि रोगा सवै ही, तेरे नामैं आधि व्याधी दवै ही।।३८ ।।
__ - छंद वेसरों - कारण कारिज तू हि दिखावै, कारण सिवपुर सकरन सिखावै। कारण कारिज रहित जु तू ही, अद्वितीय आनंद समूही ।। ३९ ।। कांखवांधि जे मोह पछारें, काट जीव के सर्वजु टारें। कांन मुंदि विकथाः दूरा, ते तोकौं पार्दै गुण पूरा॥४० ।। कातर जन तोकौं नहि पावै, कापुरषा तुव जस नहि गां। काच खंड सम इंद्री भोगा, जे न त0 ते भक्ति न जोगा॥४१ ।। कारमाण अर तैजस देहा, इनतें छूटै होय विदेहा। सव जीवनि के ए द्वय लागे, इनः छू जे तुव पागे॥ ४२ ।। कारिज अर्थ तोहि जे ध्या, ते ते तोहि कारिज पावै । कांक्षा मेटि करै जे सेवा, ते दासा तोही कौं लेवा ॥ ४३ ।। काढि जगत के दुखते देवा, सकल काहिली दूरि करेवा। दासा कालिम कामिनी त्यागैं, काज वीज गनि तोमैं लागें।। ४४।। काहल संखादिक बहु वाजा, तेरै वाऊँ तू जगराजा। सिद्धि करौ प्रभु कारिज मेरा, कांत रूप है रूप जु तेरा ।। ४५ ।। काय रहित तू है अतिकाया, सव कायनि की रक्षक राया। किरण अनंत अखंडित धामा, तू किनाक नासक अतिनामा ।। ४६ ।। सहसकिरणि है तेरौ दासा, क्रिया रूप तू जगत उदासा। निज किरिया पूरण तू स्वामी, पर किरिया तैं रहित अनांमी ॥ ४७।।