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अध्यात्म बारहखड़ी
तत्व स्वरूप अभिन्न सीरपाणिनि कौ तारक,
इहै नांम बलिभद्र, तू हि बलिभद्र उधारक । चक्रि उधारे तू हि हि स्वीकृत अति तारे,
सीं करुणा वृक्ष, मुनिगना तैं स्वीकारे ॥ ७६ ॥
सीधी वधौ निंद्य है, मांस समान सदोष । मांस समान सदोष तेल जल चरम निपतिता,
हींग महा हि अभक्ष, तू हि वरजै अधरतता । हाट मिठाई निंद्य, तजहि तुव मत द्रिढ कीधी,
भ कदापि न दास निंद्य है सीधौ वीधाँ ॥ ७७ ॥ सीता नाम जु भूमि कौ, तू हि भूमि कौ नाथ,
धरणीधर वरवीर तू, धीर महागुण साथ । धीर महागुण साथ, तू ही दुखहर सीता कौं,
सीता परम सतीहि सील है सरवस जाकौ । नारी तेरै नांहि, तू हि एकाकी मीता,
भूमी भुज तृ सत्य,
भूमि को नाम जु सीता ॥ ७८ ॥
सोरठा
सीमंधर तू देव, सीम धरम की तू सही ।
दै दयाल निज सेव, जाकरि भव भरमण मिटै ॥ ७९ ॥
२७७
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सीझैँ तेरे होइ, सीझे तोमैं आंवही। सत्य स्वयंभू सोय, ज्ञानानंद स्वरूप तू ॥ ८० ॥ सीचे जल सौं कोय, तब तरवर फल को फलै । व्रत तरवर सम होय, तुव रस सींच्यो शिव फलै ॥ ८१ ॥
सीष गर्दै जो कोय, तेरी त्रिभुवन सांइयां । सो स्वतत्त्वमय होय, भवभरमण कौं वारि दे ॥ ८२ ॥