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अध्यात्म बारहखड़ी
सीस नाय सुरराय, तोहि जु बंदै नरवरा। मुनिवर पूजै पाय, तेरे सब करि पूजि तू।। ८३ ।। सीह नृसीह अनादि, कर्म द्विरद मदहर तु ही। तू सब मांहि आदि, आदि पुरिष परवीन तू ।। ८४ ।। सीलों बास्यों अन्न, खांहि ते हि बोध न लहैं। जे तोसौं प्रतिपन्न, ते अजोग्य सब ही त6 ।। ८५ ।। सीसो वनिज न जोगि, सीसा मैं हिंसा अती। तू वरजै हि अजोगि, दया धर्म को मूल तू।। ८६ ।। सुश्रुति भासं तू हि सुगुणी सुगुण विभास तू। सुष्टहि लहैं प्रभूहि, दुष्ट न दरसन कौं लहैं ।। ८७ ।।
- मालिनी छंद - सुगत सुगति दाता, सुश्रुतो विश्रुतो तू,
सुभग सुमुख देवा, सुष्ट है सुव्रतो तू! सुमति सुहितकारी, है सुरूपो सुगुप्तो,
सुखमय सुलभो तू, पुल्लभो तू अल्लुप्तो ।। ८८ ।। सुहृद सुख सुरूपा, साधवा तोहि ध्यावे,
सुनहि सुश्रुति तेरी, 8 सुघोषा सुगांवें। सुमुख सुभग जीवा, तोहि सौ लौ लगावें,
सुविधि धरि सुधी ही, सुस्थिता होय भावै ।। ८९ ॥ सुरग मुकतिदाता, तृहि हैं मुष्टवाचा, ____ अतुलित मुखिया तू, देव है नाथ साचा। सुरपति अति पूजैं, तोहि पूज्यां सुश्रेया, लहहि सुमति नाथा, तोहि तँ तू हि ध्येया॥ ९० ॥
- छंद चालि - सुत्रामा सुरपति नामा, सुरपति को पति तू गमा। सुर असुर नरा मुनि पूजैं, तिनले अघ कर्म न पूजें।।९१॥