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अध्यात्म बारहखड़ी
सुरगुर को गुर तू देवा, है सुतनु सुमुख अतिभेवा । सुमनां हैं मुनिवर घ्यावें, सुजना तो सौं मन लावैं ॥ ९२ ॥ तो सौं जे सुरति लगांव, करि सुरचि महागुन गांवें । तेई पांवें शिव सुगती, जे भव्य सुदर्शन सुरती ॥ ९३ ॥
तू सुनय द्विनय परकासै, तू सुगी सुष्टगी भासे । गी है वांनी कौ नांमा, तेरी यांनी सुखधामा ॥ ९४ ॥ जे सुबुद्धी तोहि निहारें, तेई सुजीव शिव धारें। सुत परिजन त्यागि मुनीसा ध्यां एकाग्र जतीसा ॥ ९५ ॥ सुकृत की मूल जु तूही, सुकृती ध्यावै हि प्रभू ही । सुकृत हू लखि न सकै ही, अकृत कैसें जु धुकै ही ॥ ९६ ॥ है सुप्रसन्न जे ध्यांवें, तेई निज आतम पांवें । सुभ अशुभ त्यागि वरवीरा, तुवपुर पहुंचें जगधीरा ॥ ९७ ॥ सुपथी जे सुपथ प्रकासा, तोही तैं लहहि विलासा । सुमरन तेरौ जे धारै, कुमरन कौं तेहि बिडारै ॥ ९८ ॥ दोहा
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जे सुशील जन ध्यांवही, तोहि सुचित्त लगाय । ते सुख पिंड अखंड हैं, आवैं तुव पुरि राय ।। ९९ ।।
वसंत तिलक | छंद
तेरी प्रभू सुधि लहैं मुनि वीतरागा,
होवै सुकार्थ नर देह महा सभागा । तेरे ही मैंन सुनता सहु भ्रांति नासै,
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तेरी सुचाल लखतां निज तत्त्व भासे ॥ १०० ॥
तेरी सु स्वच्छ गतिता गति तैं अतीता,
तो सौ सुजांन जग मैं नहि और लता । मेरी सुधार नहि तोहि विना जु होई,
तू ही करें हिं सुरझार उधार सोई ॥ १०१ ॥